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________________ प्रस्ताव ४ : विचक्षण और जड़ १४४६ ने भी आचार्य को नमस्कार किया और उनके समक्ष यथास्थान जमीन पर बैठ गये । हे भद्रे अगृहीतसंकेता ! उस समय मेरे पापी मित्र शैलराज का मुझ पर प्रभाव होने से मैंने न तो ऐसे धुरन्धर आचार्य को नमस्कार ही किया न उनके चरण ही छुए । पत्थर से भरे बोरे के समान तनिक भी झुके बिना मैं सीधा तनकर मात्र श्रोताओं की संख्या बढ़ाने के लिये जमीन पर बैठ गया। [३५-३६] विचक्षणाचार्य की धर्मदेशना प्राचार्य विचक्षण ने जल से भरे हुए मेघ के समान गम्भीर स्वर में अपना उपदेश प्रारम्भ किया आचार्यश्री ने कहा-हे भद्रजनों ! एक विशाल महल में लगी हुई आग से घिरे हुए मनुष्यों की जैसी भयंकर स्थिति होती है, ऐसी ही स्थिति इस संसार की है । यह संसार शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के दुःखों का घर है । बुद्धिमान मनुष्यों को यहाँ क्षणमात्र के लिये भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । मनुष्य भव मिलना अति दुर्लभ है, * अतएव प्राणी को मुख्य रूप से परलोक का साधन करना चाहिये । इस संसार में जिन विषय-वासनाओं का सेवन किया जाता है, यद्यपि वे सेवन करते समय बड़ी मधुर लगती हैं किन्तु उनका परिणाम बहुत ही विषादकारी होता है । मन को अच्छे लगने वाले जो संयोग हमें मिलते हैं, उन सभी का अन्त वियोग में ही होता है । आयु कब समाप्त होगी यह जाना नहीं जा सकता, इसलिये मृत्यु का भय सदा बना रहता है । इसलिये इस अग्निमय संसार को शीतल (पार) करने के लिये उसके योग्य व्यवस्थित योजना बनाकर अथक प्रयत्न करना आवश्यक है। इसके लिये सिद्धान्त (तत्त्वज्ञान) वासित धर्मरूपी मेघ की वृष्टि एक मुख्य साधन है । अतः सिद्धान्त-वासित तत्त्वज्ञान को सर्वप्रथम स्वीकार करना चाहिये और उसमें जो-जो उपदेश दिया गया हो उस पर आचरण करना चाहिये । शरीर को मुण्डमाला (कच्चे घड़ों) की उपमा दी गई है अतः यह सार रहित (नाशवान) है, ऐसी भावना निरन्तर रखनी चाहिये । जो वस्तु असत् अर्थात् अस्तित्वहीन है उसे प्राप्त करने की किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये । सिद्धान्त में जिन बातों की प्राज्ञा दी गई है उनका विशेष रूप से अनुष्ठान करने के लिये सदा तन्मयता, एकाग्रता एवं निष्ठा पूर्वक तत्पर रहना चाहिये और सुसाधुओं की सेवा से उसे सदा पुष्ट करना चाहिये । धर्म-शासन और प्रवचन किसी प्रकार मलिन न होने पाए इसका सर्वदा ध्यान रखना चाहिये । जो प्राणी शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं वे उपरोक्त सभो साधनों को प्राप्त करते हैं, इसलिये सभी अनुष्ठानों में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिये । सूत्रों में वर्णित आत्मा के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से समझ कर, प्रवृत्ति करते समय आस-पास के निमित्तों (प्रसंगों) को पूर्णतया पहचान कर उनके अनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिये । जो-जो * पृष्ठ ३२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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