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________________ प्रस्ताव ४ : विचक्षण और जड़ ४४७ देखे ? हम तो पहिले ही कहते थे कि ऐसे अधम पापी दुरात्मा के योग्य कलाकौशल की भण्डार सर्वांगसुन्दरी नरसुन्दरी नहीं है । इस पापी से उस सुन्दरी का छुटकारा हुआ यह तो अच्छा ही हुआ, किन्तु वह कमलनयनी स्त्री अकाल ही मृत्यु को प्राप्त हुई यह ठीक नहीं हुआ।' [५-११] हे विमललोचना अगृहीतसंकेता ! लोग इस प्रकार मुझे धिक्कार रहे थे तथापि महामोह के कारण मेरा ज्ञान पूर्णतया विलुप्त हो जाने से मैं तो उस समय भी मेरे मन में ऐसा ही सोच रहा था कि दुर्जन लोग मेरे विरुद्ध चाहे जैसी बातें करते रहें। मेरे पिता ने मेरा त्याग किया तो भी क्या हुआ ? अभी तक मेरी भलाई चाहने वाले और विपत्ति में मेरी सहायता करने वाले मृषावाद और शैलराज तो मेरे साथ ही हैं। वे मेरे सच्चे मित्र हैं। पूर्व में भी मैंने इनकी ही कृपा से फल प्राप्त किया है और भविष्य में भी समय आने पर इनकी संगति से अवश्य ही सुन्दर फल प्राप्त करूंगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। । १२-१४] प्रतिक्षण और प्रति-समय लोगों की निन्दा सुनते, तिरस्कृत होते और तुच्छता प्राप्त करते हुए दुःख समुद्र के मध्य में मैंने कई वर्ष उस नगर में व्यतीत किये । हे भद्रे ! मेरा पुण्योदय नामक तीसरा मित्र मेरे जघन्य व्यवहार से बहुत ही कुपित हुआ और दुःख-ग्रस्त होकर अत्यन्त क्षीणकाय हो गया । यद्यपि उस बेचारे को कभी-कभी मेरे प्रति कुछ स्नेह होता था तथापि मेरे दुष्ट व्यवहार से उसकी दुर्बलता बढ़ती ही जाती थी और वह इतना अशक्त हो गया था कि मेरी किंचित् भी सहायता नहीं कर सकता था। [१५-१६] ६. विचक्षण और जड़ ललितोद्यान में विचक्षणाचार्य ___ अन्यदा मेरे पिताजी अपने राज्य परिवार के साथ अश्वक्रीडा करने हेतु नगर के बाहर गये । कौतूहल से नगरवासी भी राजा की अश्वक्रीडा देखने के लिये वहाँ गये । नगरवासियों के साथ मैं (रिपुदारण) भी अश्वक्रीडा देखने नगर के बाहर गया। वहाँ विशाल मैदान में राजलोक के समक्ष मेरे पिताजी ने वाह्लीक, कम्बोज तुर्किस्तान आदि देशों के अनेक अश्वों पर बैठकर अपनी कला का प्रदर्शन किया। प्रश्वक्रीडा समाप्त होने पर वे जन-समुदाय के साथ विश्राम के लिये पास ही के अत्यधिक शीतल ललित नामक उद्यान में गये। १७-२०] वह ललित उद्यान अनेक प्रकार के अशोक, नागरबेल, जायफल, ताड़, हिन्ताल आदि के बड़े-बड़े वृक्षों से सुशोभित था। उसमें प्रियंगु, चम्पा, अंकोल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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