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________________ ४४६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उसने नरसुन्दरी और विमलमालती को फाँसी के फन्दों से लटकते देखा तो एकदम घबरा गई। उसने तीव्रतर आवाज में रोना कर दिया। उसका प्रबल क्रन्दन सुनकर बड़ी संख्या में नागरिक और मेरे पिताजी वहाँ आ पहुँचे जिससे बड़ा कुहराम मच गया। सभी कन्दलिका से पूछने लगे कि-'यह क्या हुआ ? कैसे हुआ ? ' उत्तर में जितना कन्दलिका जानती थी उतना उसने कह सुनाया । उस वक्त तक चन्द्रमा का प्रकाश भी कुछ अधिक बढ़ जाने से उजाला अधिक हो गया था और उस प्रकाश में लोगों ने मेरी माता और पत्नी को वहाँ फांसी पर लटकते देखा । उस समय स्वकृत कर्मों के त्रास से मेरे चलने की शक्ति नष्ट हो गई थी और मुह में बोलने की शक्ति भी नहीं रह गई थी। ऐसी दशा में उस खण्डहर के एक कोने में छिपकर मैं खड़ा था । जन-समूह ने मुझे उस स्थिति में देख लिया और उन्हें विश्वास हो गया कि इस अनर्थ का कारण मैं ही हूँ। फिर तो लोगों ने मुझे खूब धिक्कारा, खूब फटकारा, खूब गालियाँ सुनाई और मेरा स्पष्टतया खुलकर अपमान किया। तत्पश्चात् मेरे पिताजी ने शोकमग्न होकर मेरी माता और पत्नी का अग्नि-संस्कार आदि सभी मृत्यूपरांत के कार्य पूरे किये। मेरा उपरोक्त कुत्सित एवं दारुण व्यवहार देखकर मेरे पिता को गहरा आघात लगा और वे शोकाक्रान्त होकर विचार करने लगे कि-'अहो ! यह कुलांगार पुत्र तो अनर्थ का भण्डार है । यह कुल का दूषण है, यह सबसे जघन्यतम और पापियों का सरदार है । यह समस्त दुःखों का मूल है और लोगों के सामान्य मार्ग का भी उलंघन करने वाला है। यह रिपुदारण तो सचमुच मेरे शत्रु जैसा ही है । ऐसे अत्यन्त अधम दुरात्मा पुत्र से मुझे क्या लाभ ? ऐसे पुत्र को घर में रखने से क्या फायदा ?' ऐसे विचारों से पिताजी ने मुझे घर से निकालने का निश्चय कर लिया । [१-४] पश्चात् मेरा अत्यन्त तिरस्कार कर पिताजी ने मुझे राजभवन से बाहर निकाल दिया। इस प्रकार समृद्धि-भ्रष्ट होकर मैं अनेक प्रकार के दुःख उठाते हुए नगर में यहाँ-वहाँ भटकने लगा। मेरे दुष्ट व्यवहार के कारण मैं जहाँ भी जाता वहाँ छोटेछोटे बालक भी मेरा अपमान करते । लोग मेरे मुंह पर मेरी निन्दा करने लगे। वे मुझे साफ-साफ शब्दों में सुनाने लगे-'अरे! यह रिपुदारण महान् पापी है, अत्यन्त दुष्ट आचरण वाला है, इसका मुह भी देखने के योग्य नहीं है. यह अत्यन्त मूर्ख है, महाप्रतापी कुल में कांटे जैसा उग पाया है और यह समस्त प्रकार से विष के ढेर जैसा है। इस दुष्ट ने अभिमान के वश में होकर अपने अत्यन्त पूज्य गुरुदेव कलाचार्य का भी अपमान किया था, स्वयं शंखचक्र-चूडामणि ढपोर-शंख जैसा मूर्ख होकर भी अपने आप को महापण्डित बताता है। अभिमान ही के वश होकर इसने माता और पत्नी का खन किया । ऐसे अत्यन्त अधम पापी अभिमानी रिपुदारण का मुह कौन * पृष्ठ ३२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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