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________________ ४४५ प्ररताव ४ : नरसुन्दरी द्वारा आत्महत्या हो गईं, मलद्वार खुल गये, जीभ बाहर निकल आई और उस बेचारी के प्राण-पखेरु उड़ गये। माता विमलमालती की आत्महत्या नरसुन्दरी को मेरे भवन से निकल कर बाहर जाते हुए और उसके पीछेपीछे मुझे जाते हए मेरी माता ने देखा था। उन्होंने समझा कि मेरी पुत्रवधु पूर्वकृत प्रेम-भंग के कारण अपमान से रुष्ट होकर जा रही है और मेरा पुत्र उसको मनाने के लिये उसके पीछे जा रहा है। हमारे थोड़ी दूर निकल जाने के बाद मेरी माता भी छिपती हुई हम दोनों को ढूढते हुए उस खण्डहर तक पहुँच गई । वहाँ पहुँचकर जैसे ही उसने नरसुन्दरी को फांसी के फन्दे पर लटकते देखा, वह घबरा गई । उसने सोचा-'हाय मैं मर गई ! हाय गजब हो गया ! मेरे अभिमानी पूत्र ने इसकी यह स्थिति बनाई है, अन्यथा वह आत्मघात करे और यह चुपचाप खड़ा-खड़ा देखता रहे ऐसा कैसे हो सकता है। मेरी माता जिस समय यह विचार कर रही थी उस समय मेरे हृदय पर शैलराज का लेप चढा होने से मुझे ऐसा लगा कि मेरी माता इस अधम स्त्री से जो किसी के स्नेह या प्रेम की पात्र नहीं है, अवांछनीय वस्तु पर प्रेम कर रही है। ऐसी विचारधारा से मैंने अपनी माता की अवहेलना करते हुए तिरस्कृत दृष्टि से देखा । अत्यधिक शोक के भार से अन्धी बनी मेरो माता ने भी उसी खण्डहर में उसी प्रकार अपनी साड़ी का फन्दा लगाकर अपनी आत्महत्या कर ली और मैं खड़ -खड़ा देखता ही रह गया। पत्नी और माता की आत्महत्या को देखकर मैं सहसा काँप गया। संताप से मेरे हृदय पर लगा हा स्तब्धचित्त नामक लेप थोड़ा सा सूख जाने से मेरे मन में पश्चात्ताप होने लगा। मेरे मन का शोक भी बढ़ गया। स्वाभाविक रूप से माता के प्रति और मोह से पत्नी के प्रति मेरा जो प्रेम होना चाहिये, उसने मेरे मन पर ऐसा प्रभाव जमाया कि अन्त में मैं विह्वल होकर अतिदारुण प्रलाप करने लगा, अर्थात् जोर-जोर से चिल्लाने लगा । मेरा यह प्रलाप-क्रन्दन क्षण मात्र के लिये ही था। शीघ्र ही शैलराज ने प्रौढता के साथ अपनी शक्ति का अद्भुत चमत्कार मुझ पर डालना प्रारम्भ किया और मेरे मन पर उसका पूरा प्रभाव पड़ने पर मैं सोचने लगा कि, 'अरे! स्त्री की मृत्यु पर कभी कोई पुरुष रोता है !' इन विचारों के आते ही मैं फिर चुप हो गया। रिपुदारण का तिरस्कार : निष्कासन ___ इधर मेरे पिताजी के राजभवन में सेविका कन्दलिका ने विचार किया कि 'रानी जी को गये इतनी देर हो गई, वे अभी तक वापस क्यों नहीं आई ? मुझे बाहर जाकर उन्हें ढूढना चाहिये ।' यह सोचकर वह राजमन्दिर से बाहर निकली और ढूँढती-ढूढती आखिर वह भी उस खण्डहर के पास आ पहुँची । वहाँ आकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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