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________________ ४४४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा सूर्य अस्त होने से चारों तरफ अन्धेरा छा गया। नगर के बड़े-बड़े मार्गों पर आवागमन कम हो गया। ऐसे समय में एक खण्डहर जैसे शून्यगृह में नरसुन्दरी ने प्रवेश किया। उस समय आकाश के दूसरे छोर पर चन्द्र उदित हो चुका था । चन्द्र के रुपहले मन्द-मन्द प्रकाश में नरसुन्दरी को देखते हुए मैं भी उसके पीछे-पीछे उस खण्डहर के द्वार तक पहुंचा और द्वार के पास ही छिपकर खड़ा हो गया। उस समय नरसुन्दरी ने चारों तरफ दृष्टि घुमायी । उसे एक स्थान पर ईंटों का ढेर दिखाई दिया। उस पर चढ़कर उसने छत के बीच के कड़े से अपनी साड़ी का एक छोर कस कर बाँधा और दूसरे छोर पर फांसी का फंदा लगाकर उसमें अपनी गर्दन डाल दी । फिर उसने ऊँची आवाज में कहा-'हे लोकपालों ! आप ध्यान पूर्वक सुनें । हे प्रज्यों! आप अपने दिव्य ज्ञान से सब कुछ देख ही रहे हैं । आज आर्यपुत्र के साथ वार्तालाप करते हुए ऐसा प्रसंग आ गया कि मैंने उनसे कलाओं पर विवेचन करने का अनुरोध किया था। यद्यपि मेरा हेतु उनका अपमान करने का कदापि नहीं था तथापि दुर्भाग्य से इस प्रसंग को लेकर वे अभिमान के पर्वत पर चढ़ गये और इस मन्दभागिनी अबला का उन्होंने सर्वथा तिरस्कार कर दिया।' नरसुन्दरी के वचन सुनकर मुझे लगा कि इस बेचारी तपस्विनी के अन्तःकरण में तो मेरा अपमान करने की कोई इच्छा नहीं थी। प्रेम-संभाषण करते-करते मुझे क्रोध आ गया अतः यह तो केवल प्रेम का ही अपराध है । इसे तिरस्कृत कर, निकाल कर मैंने ठीक नहीं किया। मुझे अभी भी इसे आत्महत्या करने से रोकना चाहिये।' इस विचार से मैं उसके गले का फंदा काटने के लिये आगे कदम बढ़ा ही रहा था कि वह फिर बोल पड़ी -हे लोकपालों ! अतएव अभी आप मेरे प्राण ग्रहण करें। जन्मान्तर में भी मेरे साथ ऐसी घटना फिर न घटे ऐसो मेरी प्राप से प्रार्थना है । उसी समय शैलराज ने कहा-'कुमार ! देख, अगले जन्म में भी वह तेरा साथ नहीं चाहती है।' उस समय उसके तात्पर्य को न समझ कर, दुर्भाग्य से शैलराज द्वारा किये गये अर्थ को ही ठीक समझ बैठा । मैंने सोचा कि उसने ऐसी दुर्घटना फिर से घटित न हो ऐसी इच्छा प्रकट की है और यह दुर्घटना तो मेरे सम्बन्ध में ही घटी है, अतः वह मेरा साथ जन्मान्तर में भी नहीं चाहती । तब मरने दो, ऐसी पापिन शंखिनी से मेरा क्या काम ? उसी समय शैलराज ने अपना लेप वाला हाथ मेरे हृदय पर लगाया । लेप के प्रभाव से मैं तो कर्त्तव्यहीन निर्जीव लकड़ी के खम्भे की तरह स्तब्ध खड़ा का खड़ा देखता रहा । उधर नरसुन्दरी ने अपनी गर्दन फंदे में डाली, फंदे को जोर से खींचा और लटक गई । तत्क्षण ही उसकी आँखें बाहर निकल आई, श्वास-मार्ग अवरुद्ध हो गया. गर्दन लटक गई, ॐ नाडियें खिंच गईं, सर्वांग शिथिल हो गया, इन्द्रियाँ शून्य * पृ० ३२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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