SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी द्वारा आत्महत्या चपल नेत्रों की उष्ण अश्रुधारा से मेरे चरणों को भिगोती हुई उसने अत्यन्त नम्रता से मेरे पाँव पकड़ लिये । उसकी दयनीय स्थिति को देखकर मेरा हृदय दहल गया। मेरे प्रति उसके पूर्वकालीन अपूर्व प्रेम का स्मरण आते ही मेरा हृदय कमल जैसा होने लगा, किन्तु शैलराज (अभिमान) की उस पर दृष्टि पड़ते ही वह फिर पत्थर जैसा कठोर हो गया। जब तक मन में प्रियतमा नरसुन्दरी के प्रणय-निवेदन के विचार रहते तब तक वह मक्खन जैसा कोमल रहता और जैसे ही शैलराज के विचार आते वह पुनः वज्र से भी कठोर हो जाता । यों मेरा हृदय कोमल एवं कठोर भावों के झूले पर झूल रहा था, 'क्या करना चाहिये और क्या नहीं इसका निर्णय लेने की स्थिति में भी नहीं था। अन्त में मोहराजा की मुझ पर विजय हुई और शैलराज को प्रसन्न करने के लिये उस दीन अबला बालिका नरसुन्दरी की मैंने भर्त्सना कर डाली। 'अरे पापिनी ! चल निकल यहाँ से । वाग्जाल की माया को छोड़ दे। यह अच्छी तरह समझ ले कि तू ऐसे वाणी-चातुर्य से रिपुदारण को नहीं ठग सकेगी। तू सभी कलाओं में बहुत प्रवीण है अतः लोगों को ठगने की कला में भी अवश्य ही प्रवीण होगी, पर मेरे जैसे मूर्ख ? को तो कभी नहीं ठग सकेगी। जब तेरे जैसी विदुषी को हंसी उड़ाने के लिये मैं ही मिला, तो अब यह व्यर्थ का प्रलाप करने में क्या सार है ? और तेरी जैसी विदुषी का नाथ भी मैं मूर्ख कैसे हो सकता हूँ ?' ऐसे कर्कश कटुवचन बोलने के बाद शैलराज से प्रेरित होने के कारण मेरे शरीर के सभी अवयव निस्तब्ध हो गये अर्थात् पत्थर जैसे शून्य एवं कठोर बन गये थे और मैं निर्जन जंगल में ध्यान-मग्न मुनि की भाँति चुप होकर बैठ गया। [१-८] प्राशाभंग : अपघात मेरे ऐसे गर्वाभिभूत कठोर और अडिग निश्चय वाले वचन सुनकर बेचारी नरसुन्दरी की दशा आकाशगामिनी विद्या भूली हुई विद्याधरी जैसी, योग सामर्थ्य से भ्रष्ट योगिनी जैसी, जल-विहीन तप्त भूमि पर पड़ी मछली जैसी है और प्राप्त रत्न भण्डार को खोने के बाद बैठी हुई चुहिया जैसी अत्यन्त दयनीय हो गई। प्राशा के सभी बाँध टूट जाने पर वह शोकसागर में डूब कर मन में विचार करने लगी कि 'प्राणनाथ से इस प्रकार तिरस्कृत होने के पश्चात् जीवित रहने का मेरे लिये क्या अर्थ है ? ऐसे जीने से तो मरना ही अच्छा है।' ऐसे विचार करती हुई वह मेरे कक्ष से बाहर निकल गई। देखें, अब यह क्या करती है ? इस विचार से शैलराज के साथ मैं भी धीरेधीरे- चलते हुए उसके पीछे-पीछे चल दिया। उसी समय मानों मेरे दुष्ट व्यवहार से खिन्न होकर सूर्यदेव भी इस क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में चले गये अर्थात् अस्त हो गये। * पृष्ठ ३२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy