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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा . गया। तब मेरी माता ने कहा--पूत्र ! तपस्विनी नरसुन्दरी को कठोर वचनों से तिरस्कृत कर तूने उसे यहाँ से निकाल दिया, यह ठीक नहीं किया । यहाँ से जाने के बाद उस बेचारी पर क्या-क्या बीतो है, सुनेगा ? मैंने कहा--जो आपको अच्छा लगे तो कहिये । तब मेरी माता बोली-यहाँ से जाने के बाद नरसुन्दरी के कपोल नेत्रों से निकलती अश्रुधारा से भीग गये थे। ऐसी अवस्था में रोती-रोती खिन्नमनस्क वह मेरे पास आई और मेरे पाँवों में गिर पड़ी। मैंने पूछा कि--'पुत्री नरसुन्दरी ! तुझे क्या हुआ ?' तो उस बेचारी ने कहा--'माताजो । कुछ नहीं, शरीर में दाह-ज्वर से पीड़ा हो रही है।' मैं उसे अधिक पवन वाले स्थान पर ले गई, वहाँ पलंग बिछा कर उसे सुलाया और मैं उसके पास बैठी । उस समय वह पलंग पर ऐसे तड़फ रही थी जैसे विशाल मुद्गर से किसी ने प्रबल प्रहार किया हो, जैसे अग्नि में जल रही हो, मानो जंगल का भयंकर सिंह उसे खाने को तैयार हो, मानो कोई बड़ा मगरमच्छ उसे निगल जाने वाला हो, मानो कोई विशाल पर्वत टूट कर उस पर गिर पड़ा हो, मानो यमराज की तलवार से उसे काटा जा रहा हो, मानो उसे कोई आरे से चीर रहा हो, मानो नरक की अग्नि में उसे पकाया जा रहा हो, इस प्रकार वह पलंग पर एक करवट से दूसरे करवट पछाड़ खाती हुई लौटने लगी। उसकी ऐसा स्थिति देखकर मंने उससे पूछा- 'अरे नरसुन्दरी ! तुझे ऐसा तोव्रतर दाहज्वर कैसे हुआ ? कुछ बता तो सही।' मेरा प्रश्न सुनकर बेचारी गहरी-गहरी सांस लेकर चुप हो गई, पर कुछ बोल न सकी । मैंने सोचा, अवश्य ही इसे कोई मानसिक पीड़ा है, अन्यथा मुझे भी स्पष्ट कारण क्यों नहीं बताती ? फिर मैंने उससे बहुत आग्रह किया तब कहीं जाकर उसने तेरे यहाँ की घटित घटना मुझे सुनायी। तब मैंने उसके शीतल उपचार के लिये कन्दलिका दासी को नियुक्त किया और मैंने नरसुन्दरी से कहा-'पुत्री ! यदि ऐसी बात है तो तू धीरज रख । अपने सब मानसिक शोक-संताप को दूर कर और साहस धारण कर । मैं अभी कुमार के पास जातो हूँ और उसे समझा कर तेरे अनुकूल करूंगी, फिर तो ठीक है ? क्या पहले तुझे इस बात का ज्ञान नहीं था कि आजकल मेरा पुत्र मानधनेश्वर अर्थात् अत्यधिक अभिमानी हो गया है, अतः उसके प्रतिकूल (विरुद्ध) कुछ कहने या चिढाने में कोई सार नहीं है। उसकी यह विशेषता अब तेरे ध्यान में प्रा गई होगी। अब तू जीवन पर्यन्त उसके प्रतिकूल या अरुचिकर ऐसा कोई वचन या आचरण मत करना और उसे अपना परमात्मा समझ कर अाराधना करना ।' मेरे सांत्वना पूर्ण वचन सुनकर बाला नरसुन्दरी विकसित कमलिनी जैसी, पुष्पयुक्त कन्दलता जैसी, पक्व सुगन्धित पाम्रमंजरी जैसी, मद झरती सुन्दर हथिनी जैसी, पानी से सिक्त प्रफुल्लित बेल जैसी, अमृतरस पान से तृप्त नागराज की पत्नी नागिनी जैसी, बादल रहित सुन्दर शोभायमान चन्द्रलेखा जैसी, सहचारी चकवे से पुनः मिलने पर चक्रवाकी जैसी और सुखरूपी अमृत के सागर में डूबी हुई के समान अवर्णनीय रसान्तर का अनुभव करती हुई शय्या से उठ बैठी और मेरे चरणों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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