________________
प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी द्वारा आत्महत्या
४२६
के वशीभूत हो गये हैं । अब किसी भी प्रकार पुन: ये प्रसन्न हों ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । उस समय स्तब्धदशा में वह नरसुन्दरी ऐसी लग रही थी मानो गारुडिक मंत्र से आहत नागिन हो, मानों मूल से खींच कर निकाली हुई बनलता हो, मानों तोड़ कर फेंक दी गई कोई श्राम्रमंजरी हो या मानों अंकुश से वश में की हुई कोई हथिनी हो । इस प्रकार एकदम शोकातुर दीनमुख वाली और आकस्मिक भय के भार से दोलायमान हृदय वाली नरसुन्दरी तत्क्षण ही मन्थर गति से चलती हुई मेरे भवन से चल दी । उस समय उसकी रत्नजटित कटिमेखला (कंदोरे) के घुंघरुओं से निकलते कल-कल स्वर और पाँव की झांझर से निर्गत भरण- भरणारव से ऐसा लग रहा था मानो कोई कलहंसी स्नान-वापिका में अपनी ओर आकर्षित कर रही हो ! इस प्रकार मन्द गति से चरण रखती हुई शोकातुर नरसुन्दरीं मेरे महल से निकल कर मेरे पिताजी के भवन में चली गई ।
81
Jain Education International
५. मरसुन्दरी द्वारा आत्महत्या
पश्चात्ताप और कामज्वर
1
मरे भवन से नरसुन्दरी के जाने के पश्चात् भी जब तक शैलराज द्वारा भरे हृदय पर लगाया हुआ लेप नहीं सूखा तब तक मैं पत्थर के खम्भे की भांति वैसे ही तना हुआ खड़ा रहा। जब यह लेप थोड़ा सा सूख गया तब मेरे मन में पश्चात्ताप हुआ। पूर्व में नरसुन्दरी पर मेरा जो स्नेह और ममत्व था वह मुझे पीड़ित करने लगा, उसके लिये मेरे मन में दुःख होने लगा और कुछ चिन्ता भो होने लगी । अन्त में मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मेरा मन एकदम शून्य (खाली) हो गया है । मेरे मन में विह्वलता होने लगी तथा शरीर एवं मन पर अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होने लगे । शरीर में कुछ कामातुरता की वृद्धि से उष्मा बढ़ गई, अर्थात् कामज्वर ने मुझे जकड़ लिया । मन के ताप को कम करने के लिये मैं पलंग पर लेटा किन्तु वहाँ भी शान्ति नहीं मिली । फलस्वरूप उबासियाँ आने लगीं, शरीर टूटने लगा और मैं इस प्रकार तड़फड़ाने लगा जैसे खैर की जलतो लकड़ियों के बीच पड़ी हुई मछली तड़फड़ाती है । कामज्वर से जलते हुए हृदय से मैं पलंग पर से उठा तभी मेरी माता विमलमालती अत्यन्त शोकातुर दशा में मेरे पास आयी ।
माता विमलमालती की शिक्षा
मेरी माता को मेरे पास आती देखकर मैंने अपने मन की चिन्ता छुपा लिया । माता के स्वतः ही भद्रासन पर बैठने पर मैं भी
को
पलंग पर बैठ
* पृष्ठ ३१७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org