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________________ प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी द्वारा आत्महत्या ४४१ I गिरकर बोली- 'माँ ! आपकी महती कृपा । मैं आपकी अनुगृहीत हूँ । मैं मन्दभाग्या हूँ | माँ ! आप शीघ्र जाकर एक बार मेरे पति को मेरे प्रति अनुकूल कर दीजिये । फिर यदि मैं स्वप्न में भी कभी मेरे श्रार्यपुत्र के प्रतिकूल व्यवहार करू तो आप जीवन पर्यन्त मुझ पापात्मा से नहीं बोले, मेरा मुँह भी नहीं देखें । मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मैं सर्व प्रकार से आर्यपुत्र के अनुकूल रहूँगी ।' मैंने कहा'अच्छी बात है, मैं अभी जाती हूँ ।' नर सुन्दरी ने पुनः 'माँ ! आपकी महती कृपा ।' कहकर दुबारा मेरा आभार माना । पुत्र ! इसीलिये मैं तेरे पास आई हूँ । पुत्र ! तात्पर्य यह है कि तू उसके प्रतिकूल है यह जानकर वह बाला जल उठती है और तुझे अनुकूल समझ कर वह प्रमुदित होकर खिल उठती है । जब वह सुनेगी कि वह कुमार को प्रिय है तो उसे अमृतपान करने के समान श्रानन्द होगा और यदि वह सुनेगी कि कुमार को वह प्रिय नहीं है तो उसे महानरक के दुःख जैसा अनुभव होगा । यदि उसे मालूम होगा कि तेरा थोड़ा भी उस पर रोष है तो वह तपस्विनी मर जायगी श्रौर यदि वह जानेगी कि अब तू उसके प्रति तनिक भी सन्तुष्ट है तो वह इसी अवलम्बन पर जीवित रह सकेगी । छोटी उम्र और नासमझी से स्नेहवश यदि उस बेचारी ने तेरा कुछ अपराध कर दिया हो तो वत्स ! वह क्षमा करने योग्य है । [१-४] प्रणतेषु दयावन्तो, दीनाभ्युद्धरणे रताः । सस्नेहापितचित्तेषु दत्तप्राणा हि साधवः ॥ ५॥ सज्जन पुरुष नतमस्तक प्राणियों पर दयावान होते हैं, दीन-हीन गरीबों का उद्धार करने में सर्वदा तत्पर रहते हैं और जो उन्हें स्नेह (भक्ति) पूर्वक अपना चित्त अर्पण करते हैं उनके लिये वे अपने प्राण भी अर्पित कर देते हैं । [ सज्जन पुरुषों का व्यवहार ऐसा ही होता है, अतः तुझे भी ऐसा ही व्यवहार नरसुन्दरी के साथ करना चाहिये । ] माता का चररण- प्रहार द्वारा अपमान नरसुन्दरी का मुझ पर कितना अविचल प्रेम था और उसके हृदय में मेरे प्रति कितना स्नेह था, इस विषय में मेरी माता का विवेचन सुनकर मैं उसके प्रति स्नेहाकर्षित हो ही रहा था कि इतने में शैलराज ने भौंहे कुटिलकर ( चढ़ाकर) सिर धुनाया और मेरे हृदय पर स्तब्धचित्त लेप लगा दिया । ४० लेप के लगते ही पत्नी ने मेरा जो अपराध ( अपमान किया था वह पुन: तरोताजा होकर मेरी आँखों के सामने घूम गया । मुझे उस पर स्नेह के स्थान पर घृणा हुई, अर्थात् मेरे मन में विपरीत प्रतिक्रिया हुई और मैंने माता से कहा- 'मेरा अपमान करने वाली इस पापिनी की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है ।' माता ने कहा'अरे वत्स ! ऐसा मत बोल । यद्यपि उसने तेरा गुरुतर अपराध किया है फिर भी मेरे कहने से तू एक बार उसे क्षमा कर दे ।' इतना कहकर मेरी माता मेरे पाँवों में * पृष्ठ ३१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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