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प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी का प्रेम व तिरस्कार ४३७ था और अब तो ऐसी निपुण पत्नी को प्राप्त कर गर्व में अन्धा हो गया है। लोगों में यह न्यायोक्ति (कहावत) है कि "पहले तो बन्दर और फिर उसके अण्डकोष पर बिच्छ काट खाये तो उसके उछलकूद (तूफान) का क्या कहना !" सचमुच ऐसे गधे के साथ हथिनी जैसी सर्वांगसुन्दरी मृगलोचना पत्नी का गठबन्धन कदापि उचित नहीं लगता । [१०-१६] नरसुन्दरी द्वारा प्रेम-परीक्षा
नरसून्दरी का चित्त सदभाव से परिपूरित था। एक दिन उसके मन में विचार जाग्रत हुआ कि रिपुदारण का मुझ पर सच्चा स्नेह है या नहीं ? इसका परीक्षण करना चाहिये । अमुक व्यक्ति का अपने पर सच्चा स्नेह है या नहीं ? इसका पता उसकी कोई गोपनीय बात कहने से लग जाता है । मैं कुमार से उसकी कोई प्रच्छन्न बात पूछ. उसका उत्तर वह ठीक देता है या कुछ छिपाता है, इस से ही पता लग जायगा कि उसका मेरे प्रति स्नेह-बन्ध कैसा है ? [२०-२२।। - इस प्रकार विचार करते-करते नरसुन्दरो ने निश्चय किया कि पति से उसकी कोई रहस्यमयी गुप्त बात अवश्य हो पूछनी चाहिये । कौनसी गुह्य बात पूछ ? यह सोचते हुए उसे स्मरण आया कि जैसे रक्त अशोक का वृक्ष कमनीय होते हुए भी फलरहित होता है वैसे ही मेरे प्रार्यपुत्र शारीरिक दृष्टि से अत्यन्त कमनीय होते हुए भी निखिल कला-कौशल में चातुर्य (फल) रहित हैं, क्योंकि जब मैं सिद्धार्थपुर में आई थी और सभा-समक्ष उनकी परीक्षा ली गई थी, उस समय तनिक भी ज्ञान न होने के कारण भयातिरेक से उनका मन अत्यधिक क्षुब्ध हो गया था जो स्पष्टतः उनके शरीर पर झलक पाया था । अतः अब मैं प्रायपुत्र से यही प्रश्न पूछ गी कि उस दिन आपके मन में जो क्षोभ उत्पन्न हुआ था उसका कारण क्या था ? यदि वे इसका स्पष्ट उत्तर देंगे तो मैं समझगी कि आर्यपुत्र का मुझ पर सच्चा और दृढ़ स्नेह है। यदि वे स्पष्ट उत्तर नहीं देंगे तो मैं समझ जाऊंगी कि उनका मेरे प्रति सच्चा प्रेम नहीं है।
उपरोक्त विचारों से प्रेरित होकर एक दिन नरसुन्दरी ने मुझ से पूछा'आर्यपुत्र ! उस दिन राज्य सभा में आपके समक्ष जब मेरी प्रथम वार्ता हुई थी तब आपके शरीर में क्या व्याधि हो गई थी ?' ऐसा युक्तियुक्त प्रश्न नरसुन्दरी ने मुझ से पूछा । उस समय योग्य अवसर को समझकर मृषावाद ने अपनी योगशक्ति का मुझ पर प्रयोग किया । वह अदृश्य होकर गुप्त रूप से मेरे मुंह में प्रविष्ट हो गया। मेरे पापी मित्र मृषावाद की प्रेरणा से मैंने नरसुन्दरी को उत्तर में कहा-'उस समय तुम्हें मेरे विषय में कैसा लगा? यह तो पहिले मुझे बतायो।'
नरसुन्दरी-आर्यपुत्र ! मुझे तो उस समय न तो ठीक से दिखाई ही दिया और न मैं वास्तविक स्थिति को जान ही सकी। उस समय मेरे मन में ऐसी शंका अवश्य हई थी कि या तो प्रार्यपुत्र के शरीर में सचमुच ही कोई रोग उत्पन्न हुआ है
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