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उपमिति-भव-प्रपंच कथा मेरे सुहृदाभास किन्तु परमार्थ से सच्चे दुश्मन मृषावाद और शैलराज मन में अत्यधिक रुष्ट हुए, अर्थात् इस सम्बन्ध ने उनके हृदय रूपी अग्नि में घी का काम किया। वे सोचने लगे कि 'यह नयी बाधा कहाँ से आ गयी ? इसने तो मित्र रिपुदारण को अपने वश में कर लिया । अब इस पापी रिपुदारण और नरसुन्दरी का वियोग कैसे हो, इसकी सुगठित योजना बनानी चाहिये।' इस विचार के परिणाम स्वरूप शैलराज ने मृषावाद से कहा- भाई मृषावाद ! अभी तू नरसुन्दरी के साथ लग जा और उसके मन में रिपुदारण के प्रति विरक्ति उत्पन्न कर । बाद में जब योग्य अवसर आयगा तब इस योजना को पूरी करने के लिये मैं भी कूद पडूगा। जब मेरे जैसा व्यक्ति प्रेम-भंग करवाने में हाथ डाले तो फिर प्रेमबन्धन कैसे टिक सकता है ?' [अर्थात् अभिमान और प्रेम एक साथ कैसे रह सकते हैं ? क्योंकि अभिमान ईर्ष्या उत्पन्न करता है और ईर्ष्या से प्रेम टूटता है ।] तत्काल ही मृषावाद ने उत्तर दिया-भाई शैलराज ! मेरे जैसे को बार-बार उत्साह दिलाने या प्रेरित करने की क्या आवश्यकता है ? पलक झपकते ही मैं नरसुन्नरी के चित्त में बहुत बड़ा भेद डाल दूगा । तू समझ ले कि यह काम तो हो हो गया। इस प्रकार मेरा नरसुन्दरी से वियोग करवाने के लिये मेरे इन दोनों पापी मित्रों ने विचार-विमर्श पूर्वक दृढ़ निश्चय किया और इस योजना को किस प्रकार क्रियान्वित किया जाय इस सम्बन्ध में भी उन्होंने परस्पर निर्णय कर लिया। [३-६] प्रेमासक्ति
जब से नरसुन्दरी मुझे अपनी सद्भार्या के रूप में प्राप्त हुई तब से मैं अपने मन में ऐसा मानने लगा कि त्रैलोक्य में प्राप्त करने योग्य सर्वोत्तम वस्तु मुझे प्राप्त हो गई है। इस विवार के परिणाम स्वरूप मैं अपनी भौंहे चढाकर, आँखे टेढी कर, अपने हृदय पर शैलराज का लेप लगाते-लगाते अपने मन में सोचने लगा कि 'मुझे सचमुच में सर्वांगसुन्दरी सौभाग्यशालिनी कला मर्मज्ञ पत्नी मिली है, अतः मेरे समान अन्य शाग्यशाली व्यक्ति त्रैलोक्य में नहीं है।' इन विचारों से मैंने उसके प्रेम के प्रगाढ बन्धन में बंधकर गुरु, देव और गुरुजनों को नमन करने के लिये भवन से निकलना भी बन्द कर दिया । फलतः मैं अपने परिजनों, सेवकों और लोक-सम्पर्क से पूर्णतया विमुख हो गया । मेरी ऐसी दुष्ट प्रवृत्ति को देखकर मेरे पुण्योदय मित्र को जिसके मन में मेरे लिये रह-रहकर स्नेह उमड़ पड़ता था असह्य संताप हुआ जिससे वह बेचारा मेरी चिन्ता में अति दुर्बल हो गया, अर्थात् मेरे पुण्य क्षीण होने लगे। समस्त स्वजन-सम्बन्धी और परिजन भी मेरा इस प्रकार का व्यवहार देखकर मेरे प्रति विरक्त बन गये और गुपचुप मेरी हँसी उड़ाते हुए कहने लगे-'अहा ! भाग्य को देखो! भाग्य कैसी विचित्र घटना घटित करता है ! वाह विधाता ने क्या इस कौए के साथ रत्न बाँध दिया है ! ऐसी रत्न जैसी स्त्री को इस मूर्ख के साथ बाँध दिया है ! 8 पहिले ही से अपनी मूर्खता के कारण रिपुदारण गर्व से फूला नहीं समाता के पृष्ठ ३१५
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