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प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरो से लग्न
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आवश्यकता है ? नरसुन्दरी स्वयं ही कुमार रिपुदारण का वरण करने हेतु ही यहाँ पाई है । अतः अब इस विषय में अधिक प्रचार या आडम्बर करने से क्या लाभ है ? ऐसा करने से तो दुर्जन व्यक्तियों को कुछ कहने का या अँगुली उठाने का अवकाश मिलेगां । अतएव कुमार अब बिना किसी परीक्षा के ही निःशंक होकर मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें।' मेरे पिताजी ने राजा नरकेसरी के प्रस्ताव को स्वीकार किया। अनन्तर शीघ्र ही शुभ दिन दिखवाया गया है और उस शुभ दिन महोत्सव पूर्वक मैंने नरसुन्दरी के साथ विवाह किया।
नरसुन्दरी को वहाँ छोड़कर उसके पिता वापस अपने देश लौट गये । मैं निर्विघ्न एवं निराकुल होकर आनन्द का उपभोग कर सकू, इस हेतु मेरे पिताजी ने एक बड़ा महल मुझे सौंप दिया।
४. नरसुन्दरी का प्रेम व तिरस्कार दाम्पत्य-प्रेम
नरसुन्दरी के साथ विवाह होने के पश्चात् उसके साथ सुखभोग करते हुए मेरे कई दिन बीत गये । पुण्योदय ने हम दोनों के प्रेम को सुदृढ़ कर दिया, हम दोनों में परस्पर पूर्ण विश्वास उत्पन्न किया, हम दोनों में प्रगाढ साहचर्य स्थापित कर दिया जिससे उसने मेरे लिये अनेक आनन्दजन्य रति-केलि के प्रसंग उत्पन्न किये, हमारे प्रणय में वृद्धि की और हमारे चित्त को एकीभूत कर हमें अगाध प्रणय-सागर में डुबकियें लगवाईं । जैसे
सूर्य अपनी प्रभा को एक क्षण भी दूर नहीं करता, जैसे चन्द्रमा अपनी चन्द्रिका को एक पल के लिये भी दूर नहीं करता, जैसे शंकर पार्वती को एक क्षण के लिये भी दूर नहीं करते वैसे ही मैं भी अपनी बल्लभा नरसुन्दरी को एक क्षण के लिये भी दूर नहीं रखता था। वह मुग्धा नवोढा सुन्दरी भी भ्रमरी की भाँति मेरे मुख-कमल के रस का आस्वाद लेने में इतनी अधिक आतुर रहती थी कि रसपान करते-करते कितना समय व्यतीत हो गया यह भी वह तपस्विनि नहीं जान पाती थी। [१-२) प्रेमभंग की योजना
जो साधारणतया देवगणों को भी दुर्लभ होता है ऐसा नरसुन्दरी और मेरे भव्य मनोहारी आकर्षक प्रेमभाव और चुम्बकीय प्रणय-बन्धन को देखकर
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