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________________ उपमिति भव-प्रपंच-कथा इस संसार में प्राणी को जिस समय जो शुभ (अच्छी ) या अशुभ ( बुरी) वस्तु प्राप्त होनी होती है वह उसे अवश्य ही प्राप्त होती है । अतः इस विषय में संतोष या असंतोष धारण करना व्यर्थ है । [१-२] अन्योक्ति का अर्थ ४३४ समयसूचक के उपरोक्त वचन सुनकर मेरे पिताजी ने सोचा कि 'सचमुच मुझे इस विषय में विषाद नहीं करना चाहिये, क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा है कि कुमार अवश्य ही नरसुन्दरी को प्राप्त करेगा । प्रथम तो देवता ने स्वप्न में मुझे कहा है कि वह कुमार को नरसुन्दरी अवश्य दिलवायेगा । दूसरे मेरे भाग्य से कालनिवेदक ने भी सुभाषित पद्य के बहाने से अभी जो उपदेश दिया है वह भी इसी बात की पुष्टि करता है । इसके कहने का तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष को जिस सुन्दर या सुन्दर वस्तु की प्राप्ति का योग होता है वह भाग्य के योग से अकस्मात ही प्राप्त हो जाती है । अतः विद्वान् पुरुष को यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि मेरे कारण या प्रयत्न से प्राप्त हुई है । फलतः उसे वस्तु की प्राप्ति या अप्राप्ति के सम्बन्ध में किसी प्रकार का हर्ष या शोक नहीं करना चाहिये ।' इस विचार से मेरे पिताजी कुछ स्वस्थ एवं आश्वस्त हुए । बिचार परिवर्तन पुण्योदय के अचिन्त्य प्रभाव के विषय में तो कुछ सोचा ही नहीं जा सकता । उसने मेरा पक्ष लेकर राजा नरकेसरी के मन में विचार उत्पन्न किया कि'अहा ! यह राजा नरवाहन वस्तुतः विशाल हृदय वाला उदार राजा है । मैं यहाँ किस कार्य के लिये आया हूँ यह बात इनके पूरे राज्य में तो फैली हुई है ही. साथ ही अन्य राजाओं को भी यह बात ज्ञात हो गई है । यदि अब मैं नरसुन्दरी का लग्न किये बिना वापस जाऊंगा तो मेरे लिये और राजा नरवाहन के लिये भी अर्थात् दोनों पक्षों के लिये यह घटना अत्यधिक लज्जाकारक होगी । अन्य राज्यों में और हमारी प्रजा में इस विषय में अनेक सच्ची-झूठी बातें फैलेंगी । अतः अच्छा यही होगा कि अब किसी प्रकार पुत्री को समझाकर इसका लग्न रिपुदाररण कुमार के साथ कर दूं' । यह सोचकर नरकेसरी राजा ने अपनी रानी वसुन्धरा के समक्ष अपनी पुत्री नरसुन्दरी के विषय में अपना अभिप्राय रखा । पुण्योदय के प्रभाव से नरसुन्दरी का मन भी मेरे प्रति आकर्षित हुआ और उसने मन में सोचा कि उसके पिता ने जो विचार व्यक्त किये हैं वे युक्तियुक्त हैं, अतः उसने पिताजी को कहा कि - 'पिताजी ! जो आपकी अभिलाषा है वह मुझे स्वीकार्य है ।' राजा यह सुनकर प्रसन्न हुआ कि पुत्री ने अपना निर्णय बदल कर मेरी बात स्वीकार कर ली है । नरसुन्दरी के साथ लग्न उसके पश्चात् राजा नरकेसरी तत्क्षण ही मेरे पिताजी से मिलकर बोले – 'अब बारम्बार परीक्षा करने की और लोगों को इकट्ठा करने की क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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