SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३३ प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी से लग्न नहीं हुए। रात्रि में किसी भी पुरुष को अपने पास न आने की आज्ञा देकर वे अपने शयनकक्ष में चले गये, किन्तु मन में चिन्ता होने के कारण उनको नींद नहीं आई और लमभग पूरी रात उनकी व्याकुलता में ही व्यतीत हुई। पुण्योदय का सहयोग इस समय मेरे अन्तरंग मित्र पुण्योदय को कुछ लज्जा पाई और उसने विचार किया कि यस्य जीवत एवैवं, पुसः स्वामी विडम्ब्यते । किं तस्य जन्मनाप्यत्र, जननीक्लेशकारिणः ।। ... अहा ! प्राणी के जीवित होने पर भी यदि उसके स्वामी को कठिनाई में फंसना पड़े, अपमानित होना पड़े तो ऐसे प्राणी के जन्म की सार्थकता ही क्या ? ऐसे प्राणी का जन्म तो मात्र अपनी माता के लिये क्लेशकारी ही है। [१] कुमार का अभी जो दुःसह अपमान हुआ उससे मुझे लज्जित होना चाहिये । नरकेसरी राजा अपनी पुत्री को साथ लेकर यहाँ आये और अब अपनी पुत्री का लग्न कुमार के साथ किये बिना वापस चले जायें, तो फिर मेरा कुमार के साथ रहना और मेरी मित्रता सब व्यर्थ है । अतः अब मेरा निष्क्रिय बैठे रहना उचित नहीं है। यद्यपि यह कमललोचना सुन्दरी किसी भी प्रकार से कुमार के योग्य नहीं है तथापि अब अपमान से बचाने के लिये किसी भी प्रकार यह कन्या उसे दिलवानी चाहिये। [२-४] नरवाहन को स्वप्न हे अगहीतसंकेता ! इधर पुण्योदय उपरोक्त बात सोच ही रहा था उधर रात हे थोड़ी बाकी रहने पर पिताजी की आँख लगी । इस समय पुण्योदय ने पिताजी को आश्वस्त करने की दृष्टि से अत्यन्त मनोहर रूप धारण कर स्वप्न में दर्शन दिया । मेरे पिताजी ने एक सुन्दर प्राकार युक्त धवल वर्ण वाले पुरुष को स्वप्न में देखा । इस धवल पुरुष ने कहा-'राजन् ! जाग रहे हो या सो गये ?' पिताजी ने कहा-'जाग रहा हूँ।' तब धवल पुरुष ने कहा-'यदि ऐसा है तो आप विषाद छोड़ दें । तुम्हारे पुत्र रिपुदारण को नरसुन्दरी दिलवाऊंगा, तुम घबरायो मत ।' पिताजी ने उत्तर में कहा-'पापकी बड़ी कृपा।' समय-निवेदक का संकेत इस समय प्रभातकालीन वाद्य (नौबत) सुनकर मेरे पिताजी जागृत हुए। उसी समय समयनिवेदक ने कहा- 'स्वयं का प्रताप क्षीण होने पर संसार के समक्ष जो कल अस्त हो गया था, वह सूर्य अभी उदय को प्राप्त कर लोगों से कह रहा है यदा येनेह यल्लभ्यं, शुभं वा यदि वाऽशुभम् । तदाऽवाप्नोति तत्सर्वं, तत्र तोषैतरौ वृथा ।। * पृष्ठ ३१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy