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________________ प्रस्ताव ४ : मृषावाद . ४१६ स्वार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये मुझे तो ऐसे सब लोग मूर्ख ही लगते हैं, क्योंकि स्वार्थ का नाश करना ही सब से बड़ी मूर्खता है । मैं तो मृषावाद की कृपा से जहाँ विग्रह (युद्ध) हो रहा हो वहाँ सन्धि करवा सकता हूँ और जहाँ सन्धि (मित्रता) हो वहाँ विग्रह (लड़ाई) करवा सकता हूँ। इस संसार में अति कठिनाई से प्राप्त होने वाली किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा मात्र से वे सब वस्तुएं मेरे प्रिय मित्र की कृपा से मुझे प्राप्त हो जाती हैं। सचमुच मेरे बड़े पुण्य-योग से ही ऐसा मित्र मुझे प्राप्त हुआ है । यही मेरा सच्चा इष्ट मित्र है और इच्छानुसार फल प्राप्त करवाने वाला है, इसलिये वह सारे संसार द्वारा वन्दनीय है । हे अगृहोतसंकेता ! उस समय मोहवश मैंने ऐसे ही अनेक सच्चे-झूठे तर्क-वितर्कों द्वारा मृषावाद को मैंने अपने मन में स्थापित कर दिया । यद्यपि उसके सम्बन्ध से मेरे द्वारा अनेक अनर्थकारी कार्य हो रहे थे, अनेक न करने योग्य कार्य मैं कर बैठता था जिसका अति दारुण दण्ड भी मुझे मिलता। परन्तु, मेरे साथ गुप्त रूप से मेरा पुण्योदय मित्र रहता था उसी के कारण मुझ पर आने वाले संकट दूर हो जाते थे तथापि मेरे मन पर मोहराजा ने अपना इतना प्रबल साम्राज्य स्थापित कर दिया था कि मैं पुण्योदय के प्रभाव को समझ ही नहीं पाता था और सभी गुणों की माला मृषावाद में ही हो ऐसा समझता था। [१-१२] कलाचार्य का अविनय __शैलराज और मृषावाद के साथ आनन्द-विनोद करते हुए क्रमश: मेरे कलाग्रहण (शिक्षाभ्यास) का समय आ गया । अत: मेरे पिताजी ने कलाचार्य को अपने पास बुलाकर उनका योग्य सन्मान किया और आनन्द पूर्वक मुझे शिक्षा देने के लिये उन्हें सौंपा। उस समय पिताजी ने मुझे कहा-'वत्स ! ये तेरे ज्ञानदाता गुरु हैं, इनके चरणों में झुककर इन्हें नमस्कार करो और इनके शिष्य बनो।' उत्तर में मैंने अभिमान पूर्वक अपने पिताजी से कहा --'अरे पिताजी ! आप मेरे सामने ऐसी बात करते हैं ! लगता है आप बहुत भोले हैं। अरे ! ये कलाचार्य मेरे से अधिक क्या जानते हैं ? ये मुझे क्या पढायेंगे ? ये अन्य साधारण लोगों के गुरु हो सकते हैं किन्तु मेरे जैसे व्यक्ति के ये गुरु कदापि नहीं हो सकते । मैं तो शास्त्र पढ़ने की कामना से कभी भी ऐसे व्यक्ति के चरणों में नहीं झुक सकता । आपके अनुरोध से मैं उनके पास सभी कलाओं का अभ्यास करूंगा, पर उनका विनय तो मैं कभी नहीं कर सकता। [१३-१८] फिर मेरे पिताजी ने कलाचार्य को एकान्त में ले जाकर कहा-आर्य ! मेरा पुत्र महा अभिमानाभिभूत हो गया है, अत: इसमें किसी प्रकार का अविनय या अन्य कोई दोष आपको दिखाई दे तो आप उद्विग्न न हों, पर आप इसे विद्या और कला का भली प्रकार अभ्यास करावें । [१६-२०] * पृष्ठ ३०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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