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________________ ४१८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा और विश्वास जैसे भले लोगों का यह राजकुमार शत्रु था । यह प्रतिज्ञालोपक का पिता (पोषक) था, नियम (मर्यादा) का महान् शत्रु था और किसी के अपयश की घोषणा करने वाले की वाहवाही करने को सदा तत्पर रहता था। उसकी आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले कई प्राणी नरक में जाते हैं, उन्हें नरक जाने का सीधा और सरल मार्ग बताने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। [५-८] मृषावाद के साथ मैत्री ___ जब मैं क्लिष्टमानस नगर में गया तब मैंने दुष्टाशय राजा को देखा और उनके पास ही बैठी महादेवी जघन्यता को भी देखा । उनके चरणों के पास बैठकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करने में परायण पुरुष को जब मैंने देखा तब मुझे अपने मन में विश्वास हो गया कि यही पितृभक्त मृषावाद होना चाहिये । * मैंने दुष्टाशय राजा को नमस्कार किया और थोड़ी देर उनके पास बैठा। [मैंने उपरोक्त नगर, नगरवासी, राजा, रानी और राजकुमार मृषावाद का जो वर्णन किया है, वह तो मुझे बहुत बाद में ज्ञात हुया । उस समय तो महामोह के वशीभूत होने से मुझे इनके स्वरूप के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उस समय तो मैंने मृषावाद को अपने बड़े भाई के समान मानकर उसे अपना परम इष्ट मित्र बना लिया और थोड़े ही समय में उसके साथ प्रेम बढ़ा लिया। उसके साथ मेरा स्नेह यहाँ तक बढ़ गया कि जैसे वह मेरे शरीर का अंग ही हो, अर्थात् हम दोनों एक प्राण एक शरीर जैसे हो गये। मृषावाद की मैत्री का प्रभाव : पुण्योदय की उपेक्षा मृषावाद के साथ मेरा प्रगाढ सम्बन्ध हो जाने के बाद मैं उसे अपने साथ ही अपने यहाँ ले आया। उसके साथ प्रानन्द-विनोद करते-करते मेरे मन में अनेक विध नये-नये तर्क-वितर्क उठने लगे । जैसे कि, मैं निश्चित रूप से अत्यधिक विचक्षण और निपुण हूँ। मुझे सार वस्तु प्राप्त हुई है। अन्य सब लोग मूढ बुद्धि वाले पशुतुल्य हैं। मुझे समस्त प्रकार की सम्पदायें प्राप्त करवाने वाला मित्र मृषावाद मुझे मिल गया है । यह प्रिय मित्र स्नेह-पूर्वक सर्वदा मेरे हृदय में रहता है । अपने मित्र के प्रताप से मैं असद्भुत पदार्थ (अस्तित्वहीन पदार्थ) में भी अस्तित्व की बुद्धि उत्पन्न कर देता हूँ और अस्तित्व वाले पदार्थों में नास्तित्व वाली बुद्धि उत्पन्न कर देता हूँ। मैं स्वयं प्रत्यक्ष में ही प्रबल दुःसाहस का काम कर डालता हूँ किन्तु इस मित्र के प्रभाव से उसका उत्तरदायित्व अन्य किसी व्यक्ति पर डाल देता हूँ। मैं इच्छानुसार चोरी करू, परस्त्री-गमन करू या अन्य कोई अपराध करू, किन्तु जब तक मेरा मित्र मृषावाद मेरे साथ है तब तक उस अपराध को गंध भी मुझ पर आरोपित नहीं की जा सकती। जिन प्राणियों से मृषावाद मित्र का सम्बन्ध न हो उनका एक भी * पृष्ठ ३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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