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________________ ४२० उपमिति-भव-प्रपंच कथा कलाचार्य का स्वयं को कला पर विश्वास __ मेरे पिताजी ने उपरोक्त शब्द कलाचार्य को बहुत ही विनय और नम्रता पूर्वक कहे जिसका उन पर बहुत असर पड़ा। उत्तर में महामति कलाचार्य ने मात्र इतना ही कहा-'जैसी महाराज की आज्ञा ।' कलाचार्य का नाम महामति था। उन्होंने अपने मन में विचार किया कि, 'जब तक शास्त्रों में उल्लिखित सुन्दर भावों का ज्ञान इस रिपुदारण को नहीं होगा और जब तक बचपन के कारण इसका मन बच्चों के खेल-कूद में अधिक है तभी तक झूठे अभिमान के वश होकर यह इस प्रकार के गर्वपूर्ण वचन बोलेगा, किन्तु एक बार शास्त्र में रहे हुए सुन्दर भावों को जब यह समझ जायेगा तब मद को छोड़कर स्वतः ही विनम्र बन जायेगा।' अपने मन में ऐसा विचार कर महामति कलाचार्य मुझे अपने साथ ले गये और मुझे आदर पूर्वक सब प्रकार की योग्य कलायें सिखाने लगे। [२१-२५] शिक्षाकाल में अभिमान ___ इन कलाचार्य के पास दूसरे भी कई राजकुमार कला का अभ्यास कर रहे थे, पर वे सभी पूर्णतया प्रशान्त और कलाचार्य का समुचित विनय करने में प्रातुर थे; परन्तु मेरे प्रति तो कलाचार्य जैसे-जैसे अधिक आदर दिखाने लगे वैसे-वैसे मेरा मित्र शैलराज अधिकाधिक वृद्धि को प्राप्त होने लगा और उसके वशवर्ती होने के कारण मदोद्धत होकर मैं स्वयं उपाध्याय (कलाचार्य) की जाति, ज्ञान और रूप के विषय में बार-बार उनका अपमान करने लगा। [मेरा अभिमान निरन्तर बढ़ता ही गया। सब छात्रों को मैं सब विषयों में स्पष्टतः अपने से तुच्छ मानने लगा और अपने व्यवहार तथा वचनों से मैं यह बात उन पर प्रकट भी करने लगा। २६-२८] कलाचार्य का निर्णय : मेरी उपेक्षा मेरे ऐसे व्यवहार को देखकर महामति कलाचार्य ने अपने मन में चिन्तन किया कि यदि सन्निपात के रोगी को स्वादिष्ट खीर खिलाई जाय तो वह उसके लिये अपथ्य-कारक होती है, जिसे चोट लगी हो उसे यदि खटाई खिलाई जाय तो उसके शरीर में लाभ होने के स्थान पर सूजन आ जाती है उसी प्रकार इस बेचारे रिपुदारण कुमार पर शास्त्राभ्यास का परिश्रम करना उल्टा उसको अधिक हानि पहुंचाने वाला सिद्ध होगा । यद्यपि नरवाहन राजा का अपने पुत्र पर अत्यधिक प्रेम होने से वे चाहते हैं कि उनका पुत्र किसी भी प्रकार विद्याभ्यास करे तो ठीक रहे और इसीलिये वे मुझे बार-बार इस विषय में उत्साहित करते रहते हैं, किन्तु यह कुमार तो पूर्णरूप से अपात्र (अयोग्य) ही लगता है। मेरे अपने विचार के अनुसार तो इसे छोड़ देना ही उचित होगा; क्योंकि यह किसी भी प्रकार के ज्ञान-दान के योग्य नहीं है । [२६-३२] एक साधारण नियम है कि यो हि दद्यादपात्राय संज्ञानममृतोपमम् । स हास्यः स्यात् सतां मध्ये भवेच्चानर्थभाजनम् ।। ३३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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