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________________ ३६६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा विमलमति के मुख की ओर घुमाई । तत्क्षण ही मंत्री ने नम्रता पूर्वक कहा-कहिये महाराज! क्या आज्ञा है ? अरिदमन-* आर्य ! मेरा विचार राज्य, सगे-सम्बन्धियों और शरीर का संग छोड़ देने का है । आचार्य महाराज के निर्देशानुसार राग-द्वेषादि कुटुम्बियों का मुझे नाश करना है, ज्ञानादि अंतरंग के विशुद्ध कुटुम्ब का अहर्निश पोषण करना है और भागवती दीक्षा लेनी है अतः जो समयोचित कार्य हों उन्हें शीघ्र करो। विमलमति-जैसी देव की आज्ञा । परन्तु, महाराज ! मुझ अकेले को कालोचित कार्य करने का है ऐसा नहीं है, अपितु आपके अन्तःपुर में रहने वाले सब लोगों, सामन्तवर्ग और राज्य कर्मचारियों एवं इस सभा में उपस्थित सभी लोगों को यह कार्य करना है। राजा ने मन में विचार किया कि मैंने तो मंत्रो को आदेश दिया था कि मेरा दीक्षा लेने का विच र है, अतः तदनरूप जिनस्नात्र, जिनपूजा दान, महोत्सव आदि जो इस अवसर के योग्य कार्य हैं वे करो। किन्तु यह क्या उत्तर दे रहा है ? अहो ! इसके कथन में अवश्य ही कोई गम्भीर अभिप्राय होना चाहिये । यह सोचकर राजा ने मंत्री से पूछा-आर्य ! अभी जो-जा कार्य करने हैं वे आपको ही करने हैं, यह आपके अधिकार का विषय है, और ये कार्य करने में आप सक्षम हैं. तब अन्य लोग समयोचित कार्य के अतिरिक्त कौन-कौन सा उचित कर्त्तव्य करने वाले हैं ? विमलमति-महाराज ! आपने जो कर्त्तव्य करने का श्री गणेश किया है, वह कर्तव्य हम सबको भी करना चाहिये, यही मेरे कहने का तात्पर्य है; क्योंकि न्याय तो सबके लिये समान होता है । आचार्यश्री ने अभी-अभी हमें समझाया है कि प्रत्येक प्राणी के तीन-तीन कुटुम्ब होते हैं । अतः हम सबके लिए समयोचित कर्तव्य यही है कि प्रथम क्षमा-मार्दव आदि कुटुम्ब को पुष्ट करें, द्वितीय कुटुम्ब राग-द्वेष आदि का विनाश करें और तृतीय बाह्य कुटुम्ब का त्याग करें। अरिदमन - आर्य ! जैसा आप कह रहे हैं, यदि वे सब भी इस बात को स्वीकार करते हैं तो बहुत ही अच्छी बात है। विमलमति-देव ! आप जो काम करने जा रहे हैं वह सबके लिये अत्यन्त पथ्यकारी है, अतः सभी इसी मार्ग को अंगीकार करें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? प्रधान का ऐसा विचार सुनकर सभा में जो कायर व्यक्ति थे वे मन में कांपने लगे कि यह मंत्री हम सबको बल पूर्वक दीक्षा दिलवा देगा। भारी कर्म वाले जीव द्वष करने लगे, नीच प्रकृति के लोग भागने लगे, विषयासक्त प्राणी घबराने लगे और जो अपने कुटुम्ब-जाल में फंसे थे वे पसीने से तरबतर होने, लेगे परन्तु जो लघ-कर्मी जीव थे वे अत्यधिक प्रसन्न हुए और जो धीर गंभीर मानस वाले थे वे * पृ० २०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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