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प्रस्ताव ३ : नन्दिवर्धन को मृत्यु
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प्रधान के वचनानुसार कार्य करने के विषय में सोचने लगे। ऐसे लघुकर्मी धीर प्रकृति वाले प्राणियों ने प्रकट में कहा-जिस प्रकार की महाराज की प्राज्ञा हो वैसा ही हम सब करने को तत्पर हैं। सर्व प्रकार की सामग्री का ऐसा संपूर्ण लाभ मिलने पर भी ऐसा कौन मूर्ख होगा जो ऐसा सर्वोत्तम साथ छोड़ देगा? ऐसे स्वर्ण अवसर का त्याग करेगा ? ऐसे वचन सुनकर राजा अपने मन में बहुत प्रसन्न हुआ। प्रमोदवर्धन चत्य में दोक्षा
वहाँ पास ही प्रमोदवर्धन नामक जिनालय था, राजा और अन्य सभी लोग वहाँ गये । उस अत्यन्त विशाल जिन मन्दिर में विराजित जिन प्रतिमाओं को स्नात्र कराया और भगवान् का जन्माभिषेक मनाया गया। फिर भगवान् की मनोहारिणी पूजा की गई । अनेक प्रकार के महादान दिये गये। कैदियों को कारागृह से छोड़ा गया और ऐसे अन्य समयोचित समस्त प्रशस्त कार्य किये गये । राजा अरिदमन का पुत्र श्रीधर था उसको नगर से वहाँ बुलाया गया और राजा ने अपना राज्य पुत्र श्रीधर को सौंप दिया । * जैन शास्त्रों में वर्णित विधि पूर्वक विवेकाचार्य ने राजा तथा उसके साथ दीक्षा लेने वाले उपस्थित सभी लोगों को भागवती दीक्षा प्रदान की। फिर प्राचार्यश्री ने संसार के प्रपंच पर विशेष रूप से वैराग्य-वर्धक और मोक्ष-प्राप्ति को इच्छा में वृद्धि करने वालो धर्मदेशना दी। पश्चात् देवता आदि जो आचार्यश्री का उपदेश सुनने और उनको वन्दन करने आये थे वे अपनेअपने स्थान पर चले गये।
३४. नन्दिवर्धन की मृत्यु उपरोक्त वर्णन के अनुसार राजा अरिदमन ने अपने अंतःपुर और अनुयायी वर्ग में से कईयों के साथ संसार-त्याग कर दीक्षा ग्रहण करली । मेरे समक्ष स्वरूप-दर्शन हुआ, अनुकरण करने योग्य संयोग बने । और, हे अगृहीतसंकेता! प्राचार्यश्री विवेक केवली ने अमृत तुल्य सदुपदेश दिया पर उन सबका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। कुछ समय पश्चात् मेरा मित्र वैश्वानर और हिंसादेवी जो दूर बैठे थे मेरे पास आये और उन्होंने फिर से मेरे शरीर में प्रवेश कर लिया। राजा अरिदमन के दीक्षा समारोह पर जब अन्य कैदियों को बन्धन-मुक्त किया गया था तब राजपुरुषों द्वारा मुझे भी बन्धन-मुक्त कर दिया गया । मैं अपने मन में सोचने लगा कि 'इस श्रमण (विवेकाचार्य) ने मुझे लोगों के बीच बदनाम किया है।' इस विचार से मेरे मन में उनके प्रति धमधमायमान क्रोध की ज्वाला भभकी। जिस स्थान पर इतनी बदनामी हो गई हो उस स्थान पर रहने से क्या लाभ ? यह सोचते * पृष्ठ २६५
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