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________________ ३३. अरिदमन का उत्थान तत्वज्ञान की आवश्यकता अरिदमन आपके उपदेश से मैंने यह जान लिया है कि इस संसार का प्रपंच बहुत भयंकर है और संसार समुद्र को पार करना प्रति दुष्कर है । इस संसार - यात्रा में मैंने मनुष्य-भव बहुत कठिनाई से प्राप्त कर, मोक्ष अनन्तानन्द से भरपूर है इस तत्त्व को श्रद्धा पूर्वक समझा और यह भी जाना कि मोक्ष प्राप्ति का कारण भूत जैनेन्द्र शासन ही है । आप जैसे परोपकारी मुनीन्द्र की संगति से तीनों कुटुम्बों के स्वरूप, हेतु और फल आदि को परमार्थतः समझ सका । ऐसे संयोग प्राप्त होने पर भी आत्महित चाहने वाला कौन समझदार व्यक्ति अपने सच्चे बन्धु- सदृश प्रथम अन्तरंग कुटुम्ब का तत्त्वतः पोषण नहीं करेगा ? कौनसा बुद्धिमान व्यक्ति आत्मसमृद्धि में विघ्न करने वाले समस्त व्यसनों के कारणभूत शत्रु जैसे दूसरे कुटुम्ब का नाश नहीं करेगा ? और तीसरे बाह्य संसारी कुटुम्ब का त्याग क्यों नहीं करेगा ? जबकि उसका त्याग करने से दुःख- समूह का नाश होता है और परम सुख प्राप्त होता है । [ ३७-४२] विवेकाचार्य - जिस प्राणी को संसार का भय लगा हो और जिसे सच्चा तत्त्व समझ में आ गया हो उसे ये तीनों कार्य अवश्य करने चाहिये । [४३ ] अरिदमन - भगवन् ! जिसने सच्चा तत्त्व नहीं समझा उस प्राणी को आपके कथनानुसार सर्वज्ञ शासन में प्रगति का कोई अधिकार है या नहीं ? विवेकाचार्य — नहीं, राजन् ! बिलकुल नहीं । [ ४४] अरिदमन का त्याग का निर्णय राजा ने विचार किया कि मैंने गुरु महाराज से तत्त्व को समझा है और श्रद्धा से मेरा मानस भी प्रक्षालित है, अतः गुरुदेव ने जिस कार्य को करने का उपदेश दिया है, उसे करने का निश्चित रूप से मुझे अधिकार भी है । [४५] ऐसा सोचते हुए राजा को उस समय वीर्योल्लास हुआ, आत्मिक प्रसन्नता हुई और उसने यतीश्वर गुरुदेव के चरण छ कर हाथ जोड़कर कहा -- महाराज ! यदि आपकी आज्ञा हो तो, आपने अभी जो प्रत्यन्त निर्घृण होकर अनुष्ठान करने का उपदेश दिया है, उस अनुष्ठान को करने की मेरी इच्छा है | |४६-४७] विवेकाचार्य - महावीर्यशाली ! आपके जैसे व्यक्ति को तो ऐसा करना ही चाहिये | आपने अभी तत्त्व को समझा है, अतः मेरी इस विषय में पूर्ण सम्मति है । [४८ ] प्रधान पुरुषों का समयोचित कर्त्तव्य उस समय राजा अरिदमन ने सहसा अपनी दृष्टि अपने पास खड़े मंत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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