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________________ २६२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा की सिद्धि को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिये अर्थात् स्वकीय कार्य साधन में कोई कमो नहीं रखनी चाहिये । ज्ञान के साथ आचरण की आवश्यकता विवेकाचार्य-राजन् ! अकेला ज्ञान कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता। - अरिदमन- यदि और कुछ करने की आवश्यकता हो तो आप निर्देश प्रदान करें। विवेकाचार्य--अन्य कर्तव्य हैं:-ज्ञान के बाद उस पर सच्ची श्रद्धा और फिर उसे अनुष्ठान (क्रिया, आचरण) रूप में परिणत करना आवश्यक है । इन में से आप में श्रद्धा तो विद्यमान है अर्थात् आपको यह प्रतीति तो है कि जो बात कही गई है वह सत्य है, अब उसके अनुसार अनुष्ठान करने की, अपने ज्ञान को आचरण रूप में परिणत करने की चारित्र की आवश्यकता है। ऐसा करने से तुम्हारे सभी मनोवांछित सिद्ध होंगे, इसमें सन्देह को तनिक भी स्थान नहीं है । राजन् ! इस अनुष्ठान को करने में आपको अनेक निर्दय आचरण (द्वितीय कुटुम्ब का विनाश करने हेतु) करने पड़ेगें। अनादि कुटुम्ब के बीच तुमुल युद्ध : निर्दय संहार अरिदमन-महाराज ! यह निर्दय कर्म किस प्रकार का है ? विवेकाचार्य ये निर्दय कर्म इस प्रकार के हैं जिसे हमारे सभी साधु निरन्तर करते रहते हैं। अरिदमन - साधु जो इस प्रकार का कार्य निरन्तर करते हैं उसे सुनने की मेरी इच्छा है । आप उसे सुनाने की कृपा करें। विवेकाचार्य-राजन् ! सुनो-इन साधुओं के साथ दूसरे अधम कुटुम्ब का स्नेह सम्बन्ध अनादि काल से है, पर उनकी अधमता को समझने के पश्चात् वे स्वयं नृशंस होकर अधम कुटुम्ब वालों को रात-दिन विशुद्ध कुटुम्ब वालों से संघर्ष कराते हैं, लड़ाते हैं । इस दूसरे कुटुम्ब के पितामह महामोह को ये साधु निर्दय होकर अपने ज्ञान के फलस्वरूप ज्ञान से नाश करते हैं । इस कुटुम्ब-तन्त्र को चलाने वाला महा बलवान राग नामक सरदार है, उसको ये साधु वैराग्य नामक यन्त्र से चूर-चूर कर देते हैं । पुनः राग का भाई द्वेष है उसे ये साधु याक्रोश में आकर मैत्री नामक तीर से मार देते हैं । इस अधम कुटुम्ब में रहने वाले द्वषगजेन्द्र के पुत्र अनादि के स्नेही बन्धु क्रोध को ये साधु निर्दय होकर क्षमा रूपी ककच (करवत) से काट देते हैं। द्वेष का पुत्र और वैश्वानर के भाई मान को ये मार्दव (मृदुता) रूपी तलवार से मार देते हैं और हाथ भी नहीं धोते हैं । द्वषगजेन्द्र की पुत्री माया का तो ये निर्दयी साधु आर्जव (सरलता) रूपी डण्डे से मार-मार कर कचूमर निकाल देते हैं और उसके भाई लोभ को तो रौद्र बनकर निर्लोभता रूपी कुल्हाड़े से टुकड़े-टुकड़े कर देते है। समस्त प्रकार का स्नेह-बन्ध कराने में परायण काम को ये मुनि दोनों हाथों के बीच में लेकर खटमल के समान मसल देते हैं। सद्ध्यान रूपी अग्नि से अपने सभी शोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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