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________________ प्रस्ताव ३ : तीन कुटुम्ब ३६३ सम्बन्धों को जला देते हैं और अपने साथ अनादि काल से स्नेह रखने वाले भय को निर्भय होकर धैर्य रूपी बाण से बींध देते हैं। राजेन्द्र ! इसी कुटुम्ब के हास्य, रति, जुगुप्सा और अरति नामक भुवा को ये साधु विवेक रूपी शक्ति से विदारण कर देते हैं। पाँच इन्द्रिय नामक भाई-भड़वों को ये मुनि घृणा-रहित होकर सन्तोष रूपी मुद्गर से खण्ड-खण्ड कर देते हैं। अन्तरंग में रहने वाले इस अधम कुटुम्ब के सभी स्नेही बन्धुजनों और सम्बन्धियों को ढूंढ-ढूंढ कर ये निर्दयी साधु उनके विरुद्ध योग्य शस्त्रों का प्रयोग कर उनका संहार कर देते हैं । हे राजेन्द्र ! इस प्रकार अधम कुटम्ब वालों को त्रास देने के साथ ही ये मुनिगण प्रथम विशुद्ध कुटुम्ब के प्रेमी सम्बन्धियों के बल, पुष्टि व तेज में वृद्धि करते हैं। धीरे-धीरे प्रथम कुटुम्ब अधिक पुष्ट होता जाता है और दूसरे कुटुम्ब के मुख्य लोगों के मर जाने से पौरुष-भग्न (सत्त्वहीन) हो जाने से वे प्रथम कुटुम्ब के कार्यों में * बाधक नहीं बन पाते । हे राजन् ! इन साधुओं को यह ज्ञान होने पर कि तीसरा बाह्य कुटुम्ब (माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, बहिन आदि) प्रधम कुटुम्ब का पोषण करने वाला है, अतः इन्होंने इस तीसरे कुटुम्ब का सर्वथा त्याग ही कर दिया है । जब तक तीसरे बाह्य कुटुम्ब का सर्वथा त्याग न कर दिया जाय तब तक प्राणी दूसरे अधम कुटुम्ब पर सर्वथा विजय प्राप्त नहीं कर सकता । अतः हे राजन् ! यदि आपकी इच्छा संसार को छोड़ देने की हो तो आप भी मेरे द्वारा निर्दिष्ट अति निर्दय कर्म क्रियान्वित करें। केवल इस बात को ध्यान में रखते हुए कि अपनी अन्तरात्मा को मध्यस्थ रख कर सम्यक् प्रकार से विचार करें कि आप में उपर्युक्त निर्दय कर्म (साध्वाचार) के क्रियान्वयन को शक्ति भी है या नहीं ? हे भूपति ! दूसरे कुटुम्ब के व्यक्तियों को निर्बल करने में मैंने जिन अत्यन्त निघुण कर्मों का वर्णन किया है उनमें से कुछ का प्रयोग ये घातकी साधु अपने अभ्यास योग के बल पर करते हैं । अन्य संसार-रसिक प्राणी तो संसार के आनन्द में इतने तल्लीन रहते हैं कि इस सम्बन्ध में विचार करना भी उनके लिये सम्भव नहीं है, उस पर आचरण करना तो उनके लिये बहुत दूर की बात है, अर्थात् वे ऐसे कर्म को (साधुता को) कभी व्यवहार में प्रवर्तित नहीं कर सकते। राजन् ! तीसरे बाह्य कुटुम्ब का त्याग, दूसरे अधम कुटुम्ब का घात और पहले विशुद्ध कुटुम्ब को पोषण करने का जो उपदेश मैंने दिया इसे बराबर ध्यान में रखें । इन तीनों का परिज्ञान कर, उस पर श्रद्धा रख और उसके आचरण में अपनी शक्ति का उपयोग कर अनेक मुनि-पुगव इस ससार प्रपंच से मुक्त हुए, समस्त द्वन्द्वों से रहित हुए और अपने स्वाभाविक रूप को प्राप्त कर मोक्षावस्था में रहते हुए प्रमोद कर रहे हैं । अतः हे राजन् ! जिस दुष्कर कर्म की मैंने व्याख्या की और उपदेश दिया उसे करना कठिन तो अवश्य है, परन्तु उसका अन्त बहुत सुन्दर है। ऐसी अवस्था में अब आपको जैसा योग्य लगे वैसा करें। [१-२४] * पृष्ठ २६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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