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________________ प्रस्ताव ३ : तीन कुटुम्ब अधिक प्रेमबद्ध होने लगता है। उसे देखकर प्राणी के मन में सन्तोष और अनुराग होता है । उस पर विश्वास उत्पन्न हो जाता है और प्रणयभाव (मित्रता) गाढ होता जाता है । इस प्रकार प्राणी के मन में क्रोध, मोह, राग, द्वष वाले इस द्वितीय अधम कुटुम्ब पर आसक्ति बढ़ती जाती है । फलत: इनमें रहे हुए अनेक दोषों को प्राणी देख नहीं पाता और प्रेम के वश उनमें जो गुण नहीं होते उन मिथ्या गुणों का आरोप करता है । इस झूठे प्रेम को लेकर प्राणी इस द्वितीय कुटुम्ब का अधिकाधिक पोषण करता है । वह अन्तःकरण पूर्वक मानने लगता है कि यह दूसरा कुटुम्ब ही उसका परम बन्धु है। हमारे जैसे उपदेशक यदि कभी उसे इस दूसरे कुटुम्ब के दोषों को बताते हैं तो वह हमें भी शत्रु बुद्धि से ग्रहण करता है अर्थात् हमें भी शत्रु मान बैठता है। अन्तरंग कुटम्ब के गुरण-दोषों का ज्ञान आवश्यक है ___ अरिदमन-भदन्त ! क्षान्ति, मार्दव आदि विशुद्ध अन्तरंग कुटम्ब और क्रोध, रागादि अधम अन्तरंग कुटुम्ब के गुण-दोषों को यदि तपस्वी प्राणी स्पष्टतया समझ जाय तो कितना अच्छा हो ! [इससे उसके यह भी समझ में आ जाय कि इन दोनों कुटुम्बों में कितना अन्तर है।] विवेकाचार्य-इससे अधिक अच्छा और क्या हो सकता है ? जो प्राणी अपना सर्वथा कल्याण करने की इच्छा रखता हो उसे तो वस्तुत: अवश्य ही प्रथम और द्वितीय प्रकार के कुटम्बों के गुण-दोषों का विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिये । हम अपनी धर्मकथा (उपदेश) में इसी पर विशेष ध्यान देते हैं । (विभिन्न उपदेश प्रणालियों से हमारा उद्देश्य यही होता है कि प्राणी इन दोनों कटम्बों के गुण दोषों को पहचाने) । वास्तव में जब तक प्राणी में स्वयं में योग्यता नहीं आती तब तक वह इन दोनों कटम्बों के बीच के अन्तर को समझने में समर्थ नहीं हो सकता, अतः जो प्राणी अयोग्य होते हैं उनके प्रति हम भी गजनिमीलिका (उपेक्षा) करते हैं। यदि सभी प्राणी इन दोनों कुटुम्बों के अन्तर को स्पष्टतया समझ लें तो इस संसार का मूलोच्छेद हो जाय; क्योंकि इन दोनों कुटुम्बों के गुण-दोषों का ज्ञान हो जाने से दूसरे अधम कुटुम्ब का तिरस्कार कर उसे मार भगाकर सभी प्राणी मोक्ष चले जायें। अरिदमन- सब प्राणियों को इन दोनों अन्तरंग कटुम्बों के गुण-दोषों का स्पष्ट ज्ञान होना या कराना, यह अनुष्ठान शक्य नहीं है तब फिर इस बारे में व्यर्थ चिन्ता करने से क्या प्रयोजन ? आपके चरणों की कृपा से हम तो दोनों अन्तरंग कटम्बों के गुण-दोषों को स्पष्ट रूप से समझ गये हैं, अतः हमारा अभिलषित कार्य तो सिद्ध हो गया। * व्यवहार में कहा गया है कि बुद्धिमान मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार परोपकार करना ही चाहिये और यदि परोपकार करने की अपने में शक्ति न हो तो अपने स्वकीय अर्थ कार्य * पृष्ठ २६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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