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________________ ३६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा करने वाला होने से अधिकतर संसार-वृद्धि का कारण ही बनता है । यदि कोई भाग्यवान् प्राणी कभी क्षान्ति, मार्दव आदि प्रथम कुटुम्ब का अनुसरण करता है तो तीसरा बाह्य कुटुम्ब उसका भी पोषण करने में सहायता करता है और इस प्रकार कभी-कभी यह बाह्य कुटुम्ब मोक्ष का कारण भी बनता है । राजन् ! द्वितीय कुटुम्ब का अंगभूत वैश्वानर समस्त संसारी जीवों का मित्र बनकर रहता है और इसो प्रकार हिंसा भी समस्त संसारी जीवों की स्त्री बनकर रहती है, इसमें तनिक भो सन्देह नहीं करना चाहिये। अरिदमन-महाराज ! आपने शान्ति, मार्दव आदि प्रथम कूटम्ब के सम्बन्ध में बताया कि यह प्राणो का स्वाभाविक कुटुम्ब है, प्राणी का हित करने वाला है और उसे मोक्ष में ले जाने का कारण है, तब प्राणी इसो कुटुम्ब को प्रेम पूर्वक क्यों नहीं अपनाते ? भगवन् ! क्रोध, मान, राग, द्वष आदि द्वितीय कुटुम्ब के बारे में आपने बताया कि यह प्राणी के लिये अस्वाभाविक है, अहितकारक है और संसार की वृद्धि का कारण है, फिर प्राणी इस द्वितीय कुटुम्ब को प्रेम पूर्वक क्यों अपनाते हैं ? विवेकाचार्य-राजन् ! प्राणी हितकारक पहले कुटुम्ब को न अपनाकर अहितकारक दूसरे कुटुम्ब को क्यों अपनाते हैं, इसका कारण सुनें । क्षमा, आर्जव आदि प्रथम कुटुम्ब और क्रोध, मानादि द्वितीय कुटुम्ब के बीच अनादि काल से वैर चलता आ रहा है। दोनों कुटुम्ब अन्तरंग मनोराज्य में रहते हैं, पर इस लड़ाई में द्वितीय अधम कुटुम्ब द्वारा प्रथम कुटुम्ब प्रायः कर हारता ही रहता है । इस प्रकार इस अनादि संसार में दूसरे कुटम्ब की अधिक शक्ति चलती है और प्रथम कुटुम्ब दब जाता है । यह प्रथम कुटुम्ब उसके भय से इतना प्रच्छन्न हो जाता है कि वह प्राणी को व्यक्त होकर अपने दर्शन भी नहीं कराता, अर्थात् प्राणी को इसका स्पष्ट दर्शन भी नहीं हो पाता । स्पष्ट दर्शन न होने से इस कुटुम्ब में कितने और कैसे गुरण हैं, इसका भी प्राणी को पता नहीं लग पाता। इसीलिये प्राणी का उसके प्रति पूर्ण आदर भाव नहीं हो पाता । वास्तव में यह कुटुम्ब प्राणी के अन्तरंग में रहता है फिर भी प्राणी ऐसा मानता है कि उसके मन में ऐसे किसी कुटुम्ब का वास नहीं है। बात इतनी अधिक बढ़ जाती है कि जब हमारे जैसे इस प्रथम कुटुम्ब के गुणों का वर्णन करते हैं तब भी उसकी विशिष्ट रूप में गणना नहीं की जाती । इस अनादि संसार में धीरे-धीरे द्वितीय कुटुम्ब शत्रुभूत प्रथम विशुद्ध कुटुम्ब के लोगों को पराजित कर दूर भगा देता है और उस पर अपनी पूर्ण विजयपताका फहरा देता है । प्राणी को अधिकाधिक अपने घेरे में जकड़ कर अपनी इच्छानुसार नचाता है और प्रकट रूप में उसका स्वामी बन जाता है । इससे प्राणी को प्रतिदिन इस अघम कुटुम्ब के ही दर्शन होते हैं। प्रतिदिन साथ रहने से प्राणी इस द्वितोय अधम कुटुम्ब के प्रति * पृष्ठ २६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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