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प्ररताव ३ : मलयविलय उद्यान में विवेक केवली
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बहाने से वे सब भव-प्रपंच मुझे बता रहे हैं। इस प्रकार विशुद्ध आत्मज्ञान के विषय में विचार कर फिर राजा ने पूछा-भगवन् ! मैंने अभी अपने मन में इस बारे में जो कुछ सोचा है, क्या वास्तव में वह ऐसा ही है अथवा अन्य प्रकार का है ?
विवेकाचार्य-राजन् ! वह वैसा ही है । आपकी बुद्धि सम्यग् मार्गानुसारिणी है, अतः अब आपकी धारणा में अन्य मिथ्याभाव तो आ ही नहीं सकते।
३१. भव-प्रपञ्च और मनुष्य भव की दुर्लभता
___ जब विवेकाचार्य ने अरिदमन राजा को यह कहा कि आपकी बुद्धि अब मार्गानुसारिणी हो गई है तब उन्हें अतीव आनन्द हुआ और तत्त्व समझने की विशेष जिज्ञासा हुई । राजा ने पूछा-भगवन् ! आपने अभी जो कथा सुनाई वह मात्र नन्दिवर्धन के विषय में ही घटित हुई है या अन्य प्राणियों के विषय में भी ऐसा होता है ?
विवेकाचार्य–राजन् ! इस संसार में रहने वाले प्राणियों में से अधिकांश की तो ऐसी ही दशा होती है, वह इस प्रकार है-प्रायः समस्त प्राणी अनादि काल से असंव्यवहारिक राशि में रहते हैं । जब प्राणी वहाँ रहता है तब क्रोध, मान, माया, लोभ आदि प्रास्रव द्वार (कर्मबन्ध के हेतु) उसके अन्तरंग स्वजन-सम्बन्धी होते हैं । जैन आगम ग्रन्थों में वर्णित अनुष्ठान द्वारा विशुद्ध मार्ग पर आकर जितने प्राणी कर्म से मुक्त होकर मुक्ति पाते हैं, उतने ही असंव्यवहार राशि में से बाहर निकलते हैं, अर्थात् व्यवहार राशि में आते हैं। यह केवलज्ञानियों के वचन हैं। इस असव्यवहार राशि में से बाहर निकले जीव बहुत समय तक एकेन्द्रिय जाति में अनेक प्रकार की विडम्बना भोगते हैं । विकलेन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रियों वाले तिर्यञ्च जाति में परिम्रमण करते हैं, वहाँ सर्वत्र नानाविध अनन्त दुःख सहते हैं । भिन्न-भिन्न अनन्त भवों में सहन करने के लिये बन्धे हुए कर्मजाल के परिणामों (विपाक-फलों) को भोगते हुए भवितव्यता के योग से बार-बार नये-नये रूप धारण करते हैं। अरहट घटी यन्त्र की तरह ऊपर नीचे घूमते रहते हैं और वहाँ वे सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक जीवों का रूप धारण करते हैं। कई बार वे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, जलचर, थलचर और आकाशगामी तिर्यञ्चों का रूप धारण करते हैं । इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप धारण कर प्रत्येक स्थान में अनन्त बार भटकते हैं। इस प्रकार नानाविध विचित्र रूपों में अनेक स्थानों पर भटकते हुए किसी जीव को * महासमुद्र में डूबते हुए को जैसे रत्नद्वीप की प्राप्ति, महारोग से जर्जरित को जैसे * पृष्ठ २८७
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