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________________ ३८६ उपमिति भव- प्रपंच कथा महौषधि की प्राप्ति, विष मूर्च्छित को जैसे मंत्र ज्ञाता की प्राप्ति, दरिद्री को जैसे चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति बड़ी कठिनाई से हो पाती है वैसे ही महान कठिनता से मनुष्य भव की प्राप्ति होती है । वहाँ भी धन के भण्डार पर जैसे बताल पीछे पड़ जाते हैं उसी प्रकार हिंसा, क्रोध आदि बैताल प्राणी के पीछे पड़ जाते हैं और उसको अनेक प्रकार से प्रपीड़ित करते हैं; जिससे महामोह की प्रगाढ निद्रा में पड़े हुए नन्दिवर्धन जैसे मन वाले पामर सत्वहीन प्राणी तो दुःखित होकर मनुष्य भव को हार जाते हैं । इतना ही नहीं, कुछ उच्चकोटि के प्राणी जो जिनवाणी रूप प्रदीप से अनन्त भव-प्रपञ्च को भलीभाँति जानते हैं, जो मनुष्य-भव प्राप्ति की दुर्लभता को समझते हैं, जो यह जानते हैं कि संसार-समुद्र से पार कराने वाला एकमात्र धर्म ही है, जो स्वानुभव (सम्यक् ज्ञान) से भगवत् प्ररूपित उपदेश के अर्थ को समझते हैं और जिनको यह भी निश्चित जानकारी है कि निरुपम आनन्द का स्थान सिद्ध दशा ही हैं, ऐसे लोग भी मूर्खो ( छोटे बालक) की तरह दूसरों को उपताप ( त्रास) देने लगते हैं, गर्व में डूब जाते हैं, अन्य प्राणियों को ठगने लगते हैं, धनोपार्जन करने में रंजित होते हैं, सत्वधारी प्राणियों की हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, दूसरों के धन का अपहरण करते हैं, इन्द्रियों के विषय भोगों में ग्रासक्त हो जाते हैं, महान परिग्रह एकत्रित करते हैं, रात्रिभोजन करते हैं । ज्ञान के होने पर भी लुभावने शब्द सुनकर मोहित होते हैं, रूप देखकर मूर्च्छित होते हैं, रस पर लुब्ध होते हैं, गन्ध पर लोलुप होते हैं और स्पर्श पर आश्लेषित (एकरूप ) होते हैं । अप्रियकारी शब्द, रूप, रस, गन्ध र स्पर्श से द्वेष करते हैं, अन्तःकरण से निरन्तर पापस्थानकों में भ्रमण करते हैं, वाणी पर कोई नियन्त्रण नहीं रखते, शरीर को उद्दण्ड बना देते हैं और तपस्या से दूर भागते हैं । मनुष्य भव मोक्ष को निकट लाने में प्रबल कारण है यह जानते हुए भी लोग ऐसे भाग्यहीन हैं कि उनके लिये यह मनुष्य भव लेशमात्र भी गुणकारक या गुणसाधक नहीं बनता, अपितु उनके लिये इस नन्दिवर्धन कुमार की भाँति अनन्त दुःखों से भरपूर संसार-परम्परा की वृद्धि करने वाला हो जाता है । सारांश यह है कि यह दुर्लभ मनुष्य भव ऐसे प्राणियों को लाभ के स्थान पर हानि ही करता है । इस प्रारणी ने संसार में परिभ्रमरण करते हुए अनन्त बार मनुष्य भव प्राप्त किया परन्तु उन भवों में विशुद्ध धर्म का प्राराधन न करने से उसे कुछ भी प्राप्त न हो सका, कोई भी कार्य सिद्ध नहीं कर सका । मैंने पहले भी कहा है कि भगवान् के धर्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । पुनः सुनिये - राजन् ! पद्मराग, इन्द्रनील जैसे अनेक रत्नों से पूर्ण भण्डारों की प्राप्ति सरल है, पर जिनेन्द्र शासन की प्राप्ति उससे भी दुर्लभ है । राज्यदण्ड और कोषागार से समृद्ध, निष्कण्टक एकछत्र राज्य प्राप्त करना सरल है परन्तु जिनोदित धर्म को प्राप्त करना उससे भी कठिन है । राजन् ! देवयोनि में इन्द्रियाँ और मन सर्वदा भोग सामग्री से तृप्त रहते हैं, ऐसो देव योनि की प्राप्ति सुलभ है परन्तु पारमेश्वरी मत की प्राप्ति महादुर्लभ है । हे भूपति ! संसार में सबसे अधिक ऐश्वर्यमान् इन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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