SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा पर से अपना प्रेम कम कर दिया और उससे धीरे-धीरे दूर होने लगा । जिस दिन कुमार ने बिना कारण स्फुटवचन को मारा, उसी दिन पुण्योदय उसे छोड़कर अन्य कहीं चला गया। फिर पुण्योदय-रहित हो जाने से उस पर पापी मित्र और क्रूर पत्नी का प्रभाव अधिक बढ़ने लगा और इन्होंने उससे अनेक प्रकार के अनर्थकारी पापकर्म करवाये। __ अरिदमन-भगवन् ! कुमार का हिंसा और वैश्वानर के साथ कितने काल से सम्बन्ध है ? विवेकाचार्य-हिंसा और वैश्वानर का कुमार नन्दिवर्धन की आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है तथापि पद्म राजा के घर जन्म लेने के पश्चात् ये दोनों कुछ विशेष रूप से प्रकट हुए हैं। इसके पहले ये दोनों छिपकर रहते थे। अरिदमन-महाराज ! क्या कुमार नन्दिवर्धन अनादि काल से है ? विवेकाचार्य-हाँ (आत्म दृष्टि से) ऐसा हो है। अरिदमन-यदि वह अनादि काल से है तो फिर पद्म राजा के पुत्र के रूप में कैसे प्रसिद्ध हुआ? विवेकाचार्य-मैं पद्म राजा का पुत्र हूँ ऐसा उसे मिथ्याभिमान हुआ है। ऐसे मिथ्याभिमान (मिथ्याज्ञान) पर तनिक भी आस्था के नहीं रखना चाहिये। अरिदमन-भदन्त ! तब परमार्थ से कुमार नन्दिवर्धन कौन हैं ? किसका पुत्र है ? विवेकाचार्य-वास्तव में यह नन्दिवर्धन असंव्यवहार नगर का रहने वाला है, इसीलिये असंव्यवहारो कुटुम्ब का गिना जाता है । इसका नाम संसारी जीव है। कर्मपरिणाम महाराजा की आज्ञा से लोकस्थिति और तन्नियोग के अनुसार अपनी पत्नी भवितव्यता के साथ इसे असव्यवहार नगर से बाहर निकाल दिया गया है, तब से यह एक स्थान से दूसरे स्थान और दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे स्थान पर भटक रहा है । यह इसका स्वरूप है, इसे आप समझ ले । अरिदमन-भगवन् ! यह सब कैसे होता है ? और इसके सम्बन्ध में यह सब कैसे हुआ ? मेरी विस्तार से सुनने की इच्छा है आप कृपा कर सुनावें। विवेकाचार्य-यदि आपकी इच्छा है तो ध्यान पूर्वक सुनें । पश्चात् प्राचार्यश्री ने मेरा सारा वृत्तान्त विस्तार पूर्वक अरिदमन को कह सुनाया। राजा अरिदमन केवली तीर्थंकर भगवान् के धर्म-दर्शनों से परिचित होने से, उसका बोध स्पष्ट और विमल होने से, भगवान् के वचनों पर विश्वास होने से, उसकी आत्मा लघुकर्मी होने से और निकट भविष्य में उसका कल्याण होने वाला था जिससे उसके मन में स्फुरणा हुई कि अहो ! प्राचार्य महाराज केवलज्ञान से नन्दिवर्धन के संसार परिभ्रमण की सब बात जानते हैं और उसे कथा को सुनाने के * पृष्ठ २८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy