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________________ प्रस्ताव ३ : मलयविलय उद्यान में विवेक केवली ३८३ तपस्वी * नन्दिवर्धन का तो तनिक भी दोष नहीं है । यह तो अपने स्वरूप से अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख और अपरिमित गुरगों का निवास स्थान है । यह तो बेचारा अज्ञानवश अभी अपने इतने श्रेष्ठ आत्म-स्वरूप को जानता ही नहीं है। इसी कारण पापी मित्र और पापिनी स्त्री की संगति में पड़ने से इसके स्वरूप में इतना विकृत परिवर्तन हुआ है। इनकी कुसंगति से इनके वशीभूत होकर वह इस अवस्था में आ पहुँचा है और अनन्त दुःखों को कारणभूत अनर्थ-परम्परा को भोग रहा है। अरिदमन-महाराज ! हमने स्फुटवचन प्रधान को जब यहाँ से पुत्री का सम्बन्ध तय करने जयस्थल भेजा था उससे पहले हमने बहुत से लोगों के मुख से सुना था कि नन्दिवर्धन के जन्म पर पद्म राजा के सम्पूर्ण राज-परिवार में आनन्द छा गया था, राज्य-भण्डार में विपुल समृद्धि हुई थी और समस्त नगर अत्यधिक प्रानन्दित हुआ था । बड़ा होने पर भी कुमार अपनी प्रकृति से प्रजा को अत्यधिक आह्लादित करता था और उसके गुणों की प्रसिद्धि चारों तरफ फैल गई थी। अपने प्रताप से उसने सारे भूमण्डल को अपने अधीन कर लिया था, शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी, जयपताका प्राप्त कर यश का डंका बजाया था और भूतल पर सिंह के जैसा पराक्रम दिखाया था । अन्त में उसे सुख-समुद्र में आनन्द करते सुना था । हे महाराज! ऐसी-ऐसी अनेक बातें हमने कुमार के सम्बन्ध में सुन रखो थीं । क्या उस समय दुःखों की परम्परा का हेतु उसका यह पापी मित्र और क्रूर पत्नी इसके साथ नहीं थे ? क्या वे अभी-अभी उससे सम्बन्धित हुए हैं ? विवेकाचार्य-राजन ! उस समय भी यह मित्र और पत्नी उसके साथ ही थे परन्तु उस समय उसको कल्याणकारिणी परम्परा और प्रसिद्धि का कुछ अन्य ही कारण था। अरिदमन- भगवन् ! वह क्या कारण था ? विवेकाचार्य-उस समय उसके साथ पुण्योदय नामक एक अन्तरंग मित्र और भी था जो सर्वदा कुमार के साथ ही रहता था। पद्म राजा और उसकी प्रजा को जो आनन्द प्राप्त हया एवं पूर्ववरिणत जो कुछ कीतिकारक कार्य हए उन सब का कारण वह पुण्योदय था । जहाँ वह होता है वहाँ अपने प्रभाव से आनन्द ही आनन्द कर देता है और चारों तरफ यश-कीर्ति फैलाता है। दुर्भाग्य से मोह के वशीभत कुमार को यह पता ही नहीं था कि उसकी यश-कीर्ति का कारण पुण्योदय है। बल्कि इसके विपरीत वह तो यह समझता रहा कि उसे जो कुछ भी लाभ, यश, विजय आदि प्राप्त हो रहे हैं वे सब उसके मित्र वैश्वानर और पत्नी हिंसा के प्रभाव से प्राप्त हो रहे हैं। इससे पुण्योदय को लगा कि यह भाई तो उसके गुणों को मानने और समझने की शक्ति वाला नहीं है, अयोग्य है । इस विचार से धीरे-धीरे उसने कुमार * पृष्ठ २८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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