SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ३ : हिंसा के प्रभाव में ३५७ इसको लगी है ?' कनकशेखर ने उत्तर में कहा-'पिताजी स्वरूप से ही सर्व प्रकार के दुःख उत्पन्न करने वाला और अनेक अनर्थों का कारण इसका एक बचपन का मित्र वैश्वानर है । इसके अतिरिक्त जिसका नाम सुनने से ही पूरे संसार को त्रास प्राप्त होता है ऐसी गुरुतर पापों का बन्ध करवाने वाली हिंसा नामक इसकी अन्तरंग पत्नी है। इन दोनों की कुसंगति के कारण इसके सभी गुण इक्षु-कुसुम (कास के फूल जैसे उज्ज्वल होते हुए भी निष्फल हैं।' महाराजा कनकचूड ने कहा- 'यदि ऐसा है तो इसे इन दोनों पापियों का त्याग करना ही उचित है । ऐसे लोगों के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये । क्योंकि: जो व्यक्ति अपना हित चाहते हों उन्हें ऐसे मित्र करने चाहिये जो इस भव और पर भव में हितकारी, उभय लोकों को सुधारने वाले और उभय लोकों का विनाश न करने वाले हों। १ । स्वहितेच्छु मनुष्य को ऐसी स्त्री के साथ लग्न करना चाहिये जो उभय लोकों में आह्लादकारिणी हो और जो धर्म-साधना में अधिक कारणभूत बने । किन्तु जिस स्त्री की चेष्टायें मूल से ही दूषित हों उसके साथ कभी भी सम्बन्ध नहीं करना चाहिये । २। उग्र-क्रोध : शत्रुता __ मैं तो सर्वदा क्रोधाग्नि से धधकता रहता था, उस अग्नि में महाराजा कनकचूड और कुमार कनकशेखर के वचनों ने घी का काम किया जिससे मेरी क्रोधाग्नि अधिक प्रज्वलित हो उठी। क्रोधाग्नि के जोश में मैंने अपना सिर हिलाया, भूमि पर हाथ से मुक्के मारे, प्रलयकाल के सदृश हुंकार किया और क्रुद्ध दृष्टि से राजा और राजकुमार की ओर देखा । फिर राजा को उद्देश्य कर चीखते हुए कहा'अरे मुर्दे ! मेरे प्रारणों से भी प्यारे वैश्वानर और हिंसा को पापी कहने वाला तू कौन है ? क्या तुझे इतना भी भान नहीं कि किस की कृपा से तुझे यह राज्य पुनः मिला है ? यदि मेरा मित्र वैश्वानर नहीं होता तो महा बलवान समरसेन और द्र म को तेरा बाप भी नहीं हरा सकता था ? उसमें से एक को भी मारने में तुम में से कौन समर्थ है, यह तो बता ?' फिर उसने कनक शेखर से कहा- 'अरे नीच ! चाण्डाल ! क्या तू मुझ से भी बड़ा पण्डित बन गया है कि मुझे शिक्षा दे रहा है ? मेरे क्रोधपूर्ण चेहरे को देखकर और कटुवचन सुनकर राजा कनकचूड को बहुत आश्चर्य हुआ और कुमार कनकशेखर का मुंह खुला का खुला रह गया। उनकी विस्मयपूर्ण मुख मुद्रा देखकर मैंने मनमें कहा- 'अरे ! ये तो मुझे कुछ मानते ही नहीं।' उसी समय चमकती हुई छुरी निकाल कर मैंने (नन्दिवर्धन ने) कहा'अरे! घर में बैठकर बातें करने वाली औरतों ! अब देखो ! थोड़ी ही देर में मैं अभी अपना और अपने मित्र वैश्वानर का चमत्कार तुम्हें बताता हूँ। तुम्हें जो प्रिय हो वह शस्त्र अपने हाथ में लेकर मुझ से युद्ध करने को तैयार हो जाओ।' * पृष्ठ २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy