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________________ ३५६ वैश्वानर और क्रूरचित्त बड़ों का प्रभाव वैश्वानर मित्र पर मेरा बहुत प्रेम होने से वह मुझे क्रूरचित्त नाम के बड़े खाने को देता रहता था, जिन्हें मैं प्रतिदिन खाता था । इसके प्रभाव से मुझ में प्रचण्ड कठोरता का भाव प्राने लगा, असहिष्णुता, उग्र भयंकरता और प्रतीव क्रूरता मेरे रग-रग में समा गई । संक्षेप में कहूँ तो उस समय मेरा अपना स्वरूप विलीन हो गया और मैं वास्तव में वैश्वानर भय ही बन गया । कुछ समय बाद तो मेरी ऐसी स्थिति हो गई कि मुझे बड़े खाने की भी आवश्यकता नहीं रही । मैं सर्वदा क्रोध से दमदमाता रहता और जो कोई मुझे हित की बात कहता मैं उसको आड़े हाथों लेता और ताडित करता । मेरे नौकरों-सेवकों को भी मैं बिना किसी अपराध के मारने लग जाता । 1 श्राखेट का व्यसन : कनकशेखर की विचारणा उपमिति भव-प्रपंच कथा हिंसादेवी के पुन: पुन: आलिंगनादि के प्रभाव से मैं शिकार का शौकीन बन गया । परिणामस्वरूप मैं प्रतिदिन अनेक जीवों को मारने लगा । मेरे शिकार के व्यसन का जब कनकशेखर को पता लगा तो वह सोचने लगा कि - अहो ! इसका व्यवहार तो बहुत गड़बड़ा रहा है । ऐसा क्यों हुआ ? यह नन्दिवर्धन तो सुन्दर है, उत्तम कुलोत्पन्न है, शूरवीर है, पढा हुआ है, महारथी है फिर भी प्राणियों को आनन्दित क्यों नहीं करता ? मेरे विचार में इसका कारण यही हो सकता है कि वह हिंसादेवी से प्रालिंगित है और वैश्वानर से प्रेम करता है । इसीलिये प्राणियों को निरंतर संताप देता है और धर्म से दूर होता जा रहा है । किन्तु, मैं इसका मित्र हूँ इसलिये मुझे इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये तथा नन्दिवर्धन को उसके हित की बात बतानी चाहिये । यदि वह इसके अनुसार व्यवहार करेगा तो उसका बहुत भला होगा । सम्भव है अकेले में शिक्षा देने से यदि वह मेरी शिक्षा को न माने तो कहना व्यर्थ होगा, अत: मुझे पिताजी के समक्ष ही इससे बात करनी चाहिये जिससे कुछ नहीं तो पिताजी की शर्म से ही वह सीधे रास्ते पर आ जाय । श्रतएव मुझे पिताजी के सामने ही नन्दिवर्धन को ऐसी शिक्षा देनी चाहिये जिससे वह हिंसा और वैश्वानर का त्याग करदे और गुणों IT भाजन बन सके [१-५] शिक्षा का प्रयत्न अनन्तर कनकशेखर ने अपने पिताजी से इस विषय में बातचीत की । एक दिन में राज्यसभा में गया, महाराजा को नमस्कार कर उनके पास बैठा । समयानुसार राजा कनकचूड ने मेरी प्रशंसा की । उस समय कनकशेखर ने कहा'पिताजी ! स्वरूप से तो भाई नन्दिवर्धन अवश्य ही प्रशंसा योग्य हैं, किन्तु उसके सुन्दर रूप में एक ही दाग ( कांटा ) दिखाई देता है कि वह सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दनीय बुरे लोगों की संगति करते हैं ।' महाराजा ने पूछा - 'ऐसी किसकी कुसंगति * पृष्ठ २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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