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वैश्वानर और क्रूरचित्त बड़ों का प्रभाव
वैश्वानर मित्र पर मेरा बहुत प्रेम होने से वह मुझे क्रूरचित्त नाम के बड़े खाने को देता रहता था, जिन्हें मैं प्रतिदिन खाता था । इसके प्रभाव से मुझ में प्रचण्ड कठोरता का भाव प्राने लगा, असहिष्णुता, उग्र भयंकरता और प्रतीव क्रूरता मेरे रग-रग में समा गई । संक्षेप में कहूँ तो उस समय मेरा अपना स्वरूप विलीन हो गया और मैं वास्तव में वैश्वानर भय ही बन गया । कुछ समय बाद तो मेरी ऐसी स्थिति हो गई कि मुझे बड़े खाने की भी आवश्यकता नहीं रही । मैं सर्वदा क्रोध से दमदमाता रहता और जो कोई मुझे हित की बात कहता मैं उसको आड़े हाथों लेता और ताडित करता । मेरे नौकरों-सेवकों को भी मैं बिना किसी अपराध के मारने लग जाता ।
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श्राखेट का व्यसन : कनकशेखर की विचारणा
उपमिति भव-प्रपंच कथा
हिंसादेवी के पुन: पुन: आलिंगनादि के प्रभाव से मैं शिकार का शौकीन बन गया । परिणामस्वरूप मैं प्रतिदिन अनेक जीवों को मारने लगा । मेरे शिकार के व्यसन का जब कनकशेखर को पता लगा तो वह सोचने लगा कि - अहो ! इसका व्यवहार तो बहुत गड़बड़ा रहा है । ऐसा क्यों हुआ ?
यह नन्दिवर्धन तो सुन्दर है, उत्तम कुलोत्पन्न है, शूरवीर है, पढा हुआ है, महारथी है फिर भी प्राणियों को आनन्दित क्यों नहीं करता ? मेरे विचार में इसका कारण यही हो सकता है कि वह हिंसादेवी से प्रालिंगित है और वैश्वानर से प्रेम करता है । इसीलिये प्राणियों को निरंतर संताप देता है और धर्म से दूर होता जा रहा है । किन्तु, मैं इसका मित्र हूँ इसलिये मुझे इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये तथा नन्दिवर्धन को उसके हित की बात बतानी चाहिये । यदि वह इसके अनुसार व्यवहार करेगा तो उसका बहुत भला होगा । सम्भव है अकेले में शिक्षा देने से यदि वह मेरी शिक्षा को न माने तो कहना व्यर्थ होगा, अत: मुझे पिताजी के समक्ष ही इससे बात करनी चाहिये जिससे कुछ नहीं तो पिताजी की शर्म से ही वह सीधे रास्ते पर आ जाय । श्रतएव मुझे पिताजी के सामने ही नन्दिवर्धन को ऐसी शिक्षा देनी चाहिये जिससे वह हिंसा और वैश्वानर का त्याग करदे और गुणों IT भाजन बन सके [१-५]
शिक्षा का प्रयत्न
अनन्तर कनकशेखर ने अपने पिताजी से इस विषय में बातचीत की । एक दिन में राज्यसभा में गया, महाराजा को नमस्कार कर उनके पास बैठा । समयानुसार राजा कनकचूड ने मेरी प्रशंसा की । उस समय कनकशेखर ने कहा'पिताजी ! स्वरूप से तो भाई नन्दिवर्धन अवश्य ही प्रशंसा योग्य हैं, किन्तु उसके सुन्दर रूप में एक ही दाग ( कांटा ) दिखाई देता है कि वह सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दनीय बुरे लोगों की संगति करते हैं ।' महाराजा ने पूछा - 'ऐसी किसकी कुसंगति * पृष्ठ २६६
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