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________________ ३५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा . हाथ में छुरी और फटी जीभ से साक्षात् यमराज जैसा मुझे देखकर राज्यसभा के सभी सदस्य भाग खड़े हुए और महाराजा तथा कुमार तो अपने स्थान से हिल तक नहीं सके ! उस समय उनका प्रताप और पुण्योदय शेष था और भवितव्यता भी ऐसी ही थी जिससे उन्हें कोई चोट पहुँचाये बिना मैं राज्य-सभा से निकलकर अपने भवन में आ गया। उसके बाद महाराजा और कुमार ने मेरी अवहेलना शुरु कर दी और मैं उन दोनों को अपना शत्रु समझने लगा । हमारे बीच साधारण लोक-व्यवहार भी टूट गया। २६ : पुण्योदय से बंगाधिपति पर विजय महाराज कनकचूड और राजकुमार कनकशेखर के साथ जब से मेरी बोलचाल और व्यवहार बन्द हुमा तब से मैं वह नगर छोड़कर जाने का विचार कर रहा था तभी जयस्थल से मेरे पिता द्वारा भेजा हुआ दूत दारुणक पाया । जब मैंने उसे अच्छी तरह से पहचान लिया तब उसने निम्न समाचार कहे:जयस्थल के समाचार दूत-कुमार श्री! मुझे प्रधानों ने आपके पास भेजा है। उसी समय मेरे मन में शंका हुई कि, अरे ! इस दूत को मेरे पिताजी ने न भेजकर प्रधानों ने मेरे पास भेजा है, इसका कारण क्या हो सकता है ? अतः मैंने दूत से पूछा -- अरे दारुणक ! पिताजी तो सकुशल हैं ? दूत- हाँ जी, पिताजी सकशल हैं। आपको ध्यान होगा कि बंग देश में यवन नामक एक राजा है। उसकी विशाल सेना ने अपने नगर के चारों तरफ घेरा डाल रखा है। अपने किले के बाहर का पूरा प्रदेश उसने जीत लिया है। उसने और भी अनेक स्थान जीत लिये हैं और अपने घास तथा अनाज के भण्डारों पर भी अधिकार कर लिया है । इस यवनराज को हटाने का कोई उपाय नहीं रहा जिससे क्षीर समुद्र जैसे गम्भीर हृदय वाले आपके पिताजी भी थोड़े बहुत विह्वल हो गये हैं, मंत्री भी विषाद को प्राप्त हुए हैं, प्रधानों के भी मन खिन्न हुए हैं और नगर के सब लोग त्रस्त हुए हैं । श्रीमान् ! क्या कहूँ ? अब क्या होगा ? इस विचार से सम्पूर्ण नगर भाग्य पर आधारित हो गया है । 'भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा', सभी लोग ऐसा सोचने लगे हैं । मन्त्रियों और प्रधानों ने मिलकर बहुत विचार के पश्चात् निश्चय किया कि यवनराजा जैसे बड़े शत्रु को हराने की सामर्थ्य तो केवल कुमार नन्दिवर्धन में है, और किसी पुरुष में ऐसी शक्ति नहीं है । इसके पश्चात् मंत्रियों में निम्न प्रकार से विचार विमर्श हुयाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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