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________________ ३५४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा युक्त पैर के अंगठे से जमीन का कुरेदना, अंतःकरण की गहन अभिलाषा को व्यक्त करती उसकी वक्र दृष्टि आदि कनकमंजरी सम्बन्धी मदन-ज्वर को तीव्रतर करने वाली बातें, जिन्हें मैं उस समय मोहवश मदन-दाह को शान्त करने वाली अमृत जैसी मानता था, बार-बार मन में याद करते हुए मैं अपने भवन में पहुँचा और उस दिन के अन्य दैनिक कार्य करने लगा। पाणिग्रहण दोपहर में दासी कन्दलिका मेरे पास आई और कहने लगी – 'कुमार ! महाराज ने कहलाया है कि आज उन्होंने ज्योतिषी को बुलाकर लग्न का मूहर्त पूछा तो उसने आज संध्या का गोधूली लग्न बहुत शुभ बताया ।' कन्दलिका के वचन सुनकर मैं रति-समुद्र में डब गया और ऐसे हर्ष के समाचार लाने के लिये मैंने उसे पारितोषिक दिया। कुछ समय बाद सोने के कलश हाथ में लिये हए स्त्रियां वहाँ आ पहुँची और उन्होंने मुझे स्नान कराया, मेरे हाथ में मंगलसूत्र बांधा। इसके बाद बड़ेबड़े दान दिये गये, कैदखाने से कैदी छोड़े गये, नगर देवताओं का पूजन कराया गया और गुरुजनों को सन्मानित किया गया। बाजार को विशेष रूप से सजाया गया । राजमार्गों को साफ करवाया गया। स्नेहीजनों को सन्तुष्ट किया गया। उस प्रसंग पर राजमाताएँ गीत गाने लगीं, अन्तपुर की दासियां नाचने लगीं और राजा के प्रिय पुरुष विलास करने लगे । ऐसे आमोद-प्रमोद के वातावरण में बड़े आडम्बर के साथ मैंने राज भवन में प्रवेश किया । वहाँ मुसल-ताड़ना, पूखने (आरती उतारने) आदि अनेक प्रकार के कुलाचार/ रीति-रस्म पूरे किये गये। फिर लग्नमण्डप में विशेष प्रकार से रचित वधगह (मातगह) में मुझे ले जाया गया। वहाँ मैंने महामोहवश जिसके विवेक चक्षु बन्द हो गये हों, ऐसी दृष्टि से हर्षातिरेक से पुलकित होकर कनकमंजरी को देखा । अपने अतिशय रूप से वह देवांगनाओं का भी उपहास कर रही थी। इन्द्रियजन्य विलासों में मदनप्रिया रति से भी अधिक प्रवीण दिखाई देती थी। उसके अधर नवरक्त प्रल्लव जैसे, स्तन गोल सुगठित चकवे-चकवी की जोड़ी का भ्रम उत्पन्न करने वाले, नाक की डण्डी ऊंची सीधी और सुन्दर, रक्त अशोक की नवस्फुटित किशलय जैसे कमनीय पतले लम्बे और चमकते हुए हाथ, रक्त कमल के पत्तों जैसी सुन्दर आँखें हाथी के सूड की आकार वाली मनोहर जांघे, अत्यन्त विस्तीर्ण नितम्ब, त्रिवली की तरंगों से तरंगायित मध्यभाग, वेणी के काले चिकने और भ्रमराकार गुच्छेदार बाल और उसके दोनों पाँव जमीन पर उगे हुए कमल के जोड़े जैसे सुशोभित थे। उसके उस रूप और यौवन को देखकर मेरे विवेक के नेत्र बंद हो गये। मुझे ऐसा लगा कि मानो वह कामरस की तलैया है, सुख की राशि है, रति का खजाना है, रूप और आनन्द की खान है । मुनियों के मन को भी अपनी और आकर्षित कर सके ऐसी सुन्दर यौवनावस्था का अनुभव कराने वाली कनकमंजरी को मैंने जी भरकर देखा । फिर * पृष्ठ २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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