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________________ प्रस्ताव ३ : कनकमंजरी ३५३ सारथि और कपिजला इधर मुझे ढूढने निकली कपिजला उद्यान के भिन्न-भिन्न विभागों में ढूँढती हुई जहाँ हम थे उसके निकट आ पहुँची । पहिले उसने तेतलि को देखा और तुरन्त बोल पड़ी-'मित्र, भले पधारे ! पर आपके कुमार कहाँ है ?' तेतलि ने कहा- 'कुमार वृक्षलता के गहन भाग में आये हुए उद्यान में हैं।' इस बातचीत के पश्चात् वे दोनों जहाँ हम थे वहाँ आने के लिये चल पड़े। दूर से ही उन्होंने हमारी जोड़ी देखी तो उन्हें अत्यधिक हर्ष हुआ । कपिजला ने कहा-'जिस विधाता ने ऐसी सुन्दर, योग्य और अनुरूप जोड़ी मिलाई उसे नमस्कार हो।' तेतलि ने कहा-'हे कपिजला ! कामदेव और रति जैसी यह सुन्दर जोड़ी आज इस उद्यान में मिली, अतः इस उद्यान का रतिमन्मथ नाम सार्थक हुआ । अभी तक तो इसका नाम अर्थ रहित होने से निरर्थक था।' इस प्रकार बात करते हुए कपिजला और तेतलि हमारे पास पहुँचे । उन्हें देखकर कनकमंजरो घबरा कर एकाएक खड़ी हो गई जिसे देख कपिजला ने कहा-'पुत्री ! बैठ जा । घबराने का कुछ भी कारण नहीं है ।' पश्चात् अमृतपुञ्ज के समान दूब पर बैठकर हम चारों स्नेहपूरित हास्य युक्त विश्वस्त बातें करते रहे। कंचुको योगन्धर हम बातों में रस मग्न थे तभी कनकमंजरी के अन्तःतुर का कंचुकी योगन्धर वहाँ आ पहुँचा । मुझे प्रणाम कर उसने शीघ्रता से कनकमंजरी को बुलाया । तब कपिजला ने पूछा-'भैया योगन्धर ! इस प्रकारी कुमारी को सहसा बुलाने का क्या कारण है ?' कंचुकी ने उत्तर दिया- महाराज ने जब सुना कि रात में राजकुमारी अस्वस्थ थी तो प्रातः ही कुमारी को देखने भवन में आ गये। कुमारी वहाँ नहीं मिली । फलतः महाराज व्याकुल हो गए और महाराज ने मुझे बुलाकर आज्ञा दी कि कुमारी जहाँ कहीं हों उसका पता लगाकर मैं उन्हें शीघ्र ही उनके पास लेजाऊं।' इसलिये कुमारी जी को बुलाने के लिये मैं आया हूँ। * कनकमंजरी यह जानती थी कि पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन कभी भी नहीं हो सकता, अतः मेरी तरफ तिरछी दृष्टि से देखती हुई, आलस्य मरोड़ती हुई कपिजला के साथ वहाँ से प्रस्थान कर गई और थोड़ी ही देर में मेरी दृष्टि से अोझल हो गई। स्नेह-स्मृतियाँ ___ कनकमंजरी के जाने के बाद तेतलि ने मुझ से कहा-'प्रभो ! अब यहाँ अधिक ठहरने की क्या आवश्यकता है ?' उसके पश्चात् कनकमंजरी का बनावटी क्रोध भरा मुखडा, 'निष्ठुर हृदय मुझे छोड़ दें' जैसे वचन, विलसित दंतपंक्ति से रंजित प्रोष्ठ, अंतरंग के हर्षातिरेक को व्यक्त करते विस्फुरित कपोल, प्रेम पगी लज्जा* पृष्ठ २६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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