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________________ ३५२ उपमिति भव-प्रपंच कथा जैसी दिख रही थी । शरीर में बार-बार होने वाले रोमांच से वह कदम्ब-पुष्प माल जैसी लग रही थी । प्रथम मिलाप की स्वाभाविक घबराहट से उसका शरीर कम्पित हो रहा था जिससे वह पवन के वेग से हिलती हुई वृक्ष मंजरी जैसी लग रही थी । उसकी प्राँखें बन्द थी और हलन चलन बन्द था जिससे ऐसा लग रहा था जैसे वह आनन्द के समुद्र में डूबी हुई हो । नन्दिवर्धन के प्रेम वचन ऐसी स्थिति में कनकमंजरी लज्जावश समझ में न आने वाले अस्पष्ट शब्द बोल रही थी -- ' अरे निष्ठुर हृदय ! मुझे छोड़ ! छोड़ !! मुझे तेरी कोई आवश्यकता नहीं ।' इस प्रकार कहते हुए उसने मेरे हाथ से छूटने का प्रयत्न किया । उसके प्रयत्न को देखकर मैंने उसे दूब उगी जमीन पर बिठाया । मैं उसी के पास उसके सामने बैठा और बोला- 'अरे सुन्दरी ! अब लज्जा को छोड़, क्रोध को शान्त कर, मैं तो तेरी आज्ञा का पालन करने वाला सेवक हूँ । मुझ पर इतना क्रोध करना उचित नहीं ।' मैं जब इस प्रकार बोल रहा था तब उसे भी कुछ बोलने का विचार हुआ परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी लज्जावश वह मुझ से कुछ बोल नहीं सकी । केवल उसकी श्वेत दन्तपंक्ति की किरणें, रक्तिम अधर और स्फुरायमान कपोल उसके हृदय के प्रानन्द को व्यक्त करते थे, किन्तु बाहरी दिखावे में तो वह अपने बांये हाथ के अंगूठे से जमीन कुरेदते हुए नीचा मुँह किये बैठी ही रही । मैंने फिर कहा - हे सुन्दरी ! अब अपने मन के संकल्प-विकल्पों का त्याग कर । प्यारी ! मेरे हृदय, प्राण और शरीर से भी तू मुझे अत्यधिक प्रिय है । लोक्य में तेरे अतिरिक्त मेरे हृदय का कोई स्वामी नहीं है । हे पद्मलोचना ! तूने अपने अन्तरंग का प्रेम रूपी मूल्य देकर आज से मुझे क्रीत कर लिया है, अत: आज से मैं तेरे पाँव धोने वाला सच्चा सेवक हूँ। मैं तुझे विश्वास दिलाता हूँ कि मैं कठोर हृदय वाला नहीं हूँ । अपने लिये यदि कोई कठोर हृदय वाला है तो वह केवल भाग्य लिखने वाला विधाता ही है । हे सुलोचना ! वही तेरे मुखकमल के दर्शन में बाधक बनता है । [१-३ [ जब राजकुमारी ने मेरे उपरोक्त वचन सुने तब अपने अंतःकरण में अत्यन्त प्रसन्न होने से वह मुझे ऐसी लगने लगी मानों किसी प्रभीष्ट मधुर रस में डूब रही हो । मानो यह राजकुमारी कोई दूसरी ही हो । मानों उसके शरीर पर अमृत की वर्षा हुई हो । मानों उसने सुख के सागर में डुबकी लगाई हो अथवा उसे कोई बड़ा साम्राज्य प्राप्त हो गया हो । ऐसा आनन्द उसके चेहरे पर दिखाई देने लगा । [४-५ ] * पृ० २६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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