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________________ प्रस्ताव ३ : कनकमंजरो दूर से ही मैंने देखा कि वह चपल दृष्टि से चारों दिशाओं में किसी को खोज रही है, पर कोई मनुष्य उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। * अन्त में उसने कहा - 'हे भगवति वनदेवता ! आप साक्षी हैं। तेतलि ने मेरी धाय के पास स्वीकार किया था कि मेरे इष्ट हृदयनाथ को वह शीघ्र ही मेरे पास लेकर आयेगा और इस रतिमन्मथ उद्यान में मिलने का उसने संकेत किया था। वह बुड्ढी बिल्ली (कपिजला) ठगकर मुझे यहाँ लायी है । मेरे हृदयनाथ यहाँ तो कहीं दिखाई नहीं देते और वह बुड्ढी भी उन्हें ढूढने के बहाने मुझे अकेली यहाँ छोड़कर न जाने कहाँ चली गई है ? यह कपिजला इन्द्रजाल की रचना करने में बहुत चतुर है। उसने आज मुझे ठगा है। इधर तो मैं प्रियतम के विरह से दग्ध हूँ और उधर मेरे विश्वस्त जनों ने मेरे साथ छल किया है। मुझ जैसी मन्दभाग्य वाली स्त्री के जोने से क्या लाभ ? आप वनदेवता से मैं यहो वर माँगती हूँ कि अगले जन्म में भी यही हृदयनाथ मेरे पति बनें।' इस प्रकार कहते हुए कनकमंजरी वल्मीक शिखर के सहारे एक तमाल वृक्ष की डाल पर चढी । वृक्ष की डाल के साथ रस्सी बाँधी और उस रस्सी से अपने गले को बाँधकर ज्योंही लटकने को तैयार हुई त्योंही 'अरे, सुन्दरी ! ऐसा दुस्साहस क्यों कर रही हैं ?' ऐसा कहते हुए त्वरित गति से मैं उसके पास पहुँच गया और बांये हाथ से उसके शरीर को सम्भाल कर दांये हाथ से छूरी से मैंने रस्सी को काट दिया। फिर मैंने उसे लिटाकर उस पर पवन किया। जब उसे कुछ चेतना आई तब मैंने कहा-'अरे देवि ! ऐसा अघटित कार्य क्यों कर रही थी ? यह पुरुष तुम्हारे अधीन है । अतः सर्व प्रकार के क्लेश, दुःख और विषाद का त्याग करो।' कनकमंजरो से मिलन कनकमंजरी कुछ आंखे भींचते और कुछ-कुछ तिरछी दृष्टि से मुझे देखने लगी। जब वह मेरे सामने देख रही थी उस समय वह मानों अनेक रसों का एक साथ अनुभव कर रही हो, मानो कामदेव के चिन्हों को व्यक्त कर रही हो । उस समय उसका स्वरूप ऐसा अनिर्वचनीय लग रहा था जो योगियों की वाणी से भी वर्णनातीत था। स्वयं अकेली होने से उसे कुछ डर लग रहा था, पर यह वह पुरुष है जिसे वह चाहती है, इस विचार से उसे प्रानन्द भी हो रहा था। ये अपने आप हो इस स्थान पर कैसे पहुंच गये होंगे, इस विषय में उसे शंका हो रही थी। ये बहुत ही रूपवान है इस विचार से उसके मन में थोड़ी घबराहट हो रही थी। स्वयं चल कर यहाँ आई थी, इस विचार से मन में लज्जित भी हो रही थी। इस जनरहित एकान्त प्रदेश में अकेली हूँ, इस विचार से चारों दिशाओं में चपल दृष्टि घुमा रही थी। इसी उद्यान में मिलने का संकेत किया था, इस विचार से उसका मन कुछ आश्वस्त हुना था। मुझे फांसी लगाकर आत्म-घात करते इन्होंने देख लिया है, इस विचार से मन में खिन्न हई। उसका पूरा शरीर पसीने से तर-बतर था जिससे वह समुद्र मन्थन से निकली लक्ष्मी * पृष्ठ २६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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