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________________ ३५० अमात्य विमल का संदेश मैं तेतलि से इस प्रकार बातें कर ही रहा था कि कनकचूड राजा का श्रमात्य विमल मेरे भवन के द्वार पर श्रा पहुँचा । प्रतिहारी ने सूचित किया कि श्रमात्य विमल श्राये हैं। शीघ्र ही मैंने सारथि तेतलि को एक आसन पर बैठने को कहा, तब तक द्वारपाल अमात्य को लेकर मेरे पास आ गया। उसने मुझे योग्य रीति से प्रणाम किया और कहा कुमार श्री ! महाराज कनकचूड ने अपने एक विशिष्ट कार्य से मुझे आपके पास भेजकर कहलाया है कि मेरे प्राणों से अधिक प्रिय कनकमंजरी नामक पुत्री है । मेरे अनुरोध पर आप उससे पाणिग्रहरण कर मुझे आह्लादित करें । अमात्य के उपरोक्त वचन सुनकर मैंने तेतलि की ओर देखा । उसने कहा - महाराज कनकचूड की सभी आज्ञाओं को आपको स्वीकार कर लेना चाहिये । अतः उन्होंने श्रापसे जो अनुरोध अवश्य स्वीकार करें । देव प्रज्ञा के समान किया है, उसे प्राप उपमिति भव-प्रपंच कथा मैंने उत्तर दिया- 'तेतलि ! तुम जो कहते हो वह मुझे स्वीकार है ।' मेरा उपकार मानते हुए अमात्य विमल वहाँ से विदा हुआ । फिर तेतलि ने मुझ से कहा'देव ! अब आप रति-मन्मथ उद्यान में पधारें । अधिक विलम्ब होने से राजकुमारी कनकमंजरी का मन ऊंचा - नीचा होगा, जो नहीं होना चाहिये ।' मैंने उसको बात को स्वीकार किया । 1 रति मन्मथ उद्यान में फिर ताल को साथ लेकर मैं रतिमन्मथ उद्यान में पहुँचा । मनोहारिणी शोभा में इन्द्र के नन्दनवन का भो उपहास करने वाले इस उद्यान को मैंने देखा । कनकमंजरी के दर्शन की आशा से मैं वहाँ चम्पक वीथिका में, कदली (केला) समूह में, माधवीलता मण्डप में, केतकी खण्ड में, द्राक्षा मण्डप में, अशोक वन में, लवलीवृक्षों के गहन भागों में, नागरबेल के आरामगृह में, कमल सरोवर की पाल पर और अन्य बहुत से सुन्दर स्थानों पर घूमा, बार-बार उन्हीं स्थानों पर गया, परन्तु उस मृगनयनी को मैंने कहीं नहीं देखा । तब मैंने मन में सोचा कि तेतलि ने मुझे ठगा है। अमात्य विमल भी कन्या के पाणिग्रहण का जो संदेश दे गया वह भा तेतलि का मायाजाल हो लगता है । ऐसो अद्भुत नवयौवना के दर्शन का सौभाग्य भी मेरे भाग्य में कहाँ है ? शोकप्रस्ता कनकमंजरी मैं उन्मना - सा होकर ऐसे विचारों में लीन तरुलताओं के गहन भाग में से झांझर की मधुर ध्वनि छोड़, जिधर से नूपुर की ध्वनि भाई थी उधर ही स्वर्गभ्रष्ट देवांगना जैसी, गृहत्यक्त नागकन्या जैसी और कामदेव के विरह से कातर रति जैसी शोकमग्न कनकमंजरी को मैंने देखा । Jain Education International था कि तभी उद्यान की सुनाई दी । तेतलि को वहीं गया तो तमाल वृक्षों के नोचे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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