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प्ररताव ३ : रौद्रचित्त नगर में हिंसा से लग्न
वह दुष्टाभिसन्धि राजा की आज्ञा का कभी अनादर नहीं करती और निष्करुणता माता की आज्ञा का भो बराबर पालन करती है।
अपने माता-पिता की सेवा शुश्रूषा करने में सर्वदा तत्पर रहती है। इसीलिये इसे माता-पिता के प्रति विनीता कहा गया है। [६-७]
इस हिंसा पुत्री को स्वरूप से प्रतिभीषण आकृति वाला क्यों कहा है ? उसका कारण सुनो
इस पुत्री का नाम ही इतना भयंकर है कि जिसे सुनने मात्र से लोगों के मन में भय और कम्पकंपी छट जाती है तब उसे साक्षात देखने पर तो वह कितनी बीभत्स और डरावनी लगती होगी, इसकी कल्पना आप स्वयं करें। यह हिंसा अपना शिर नीचे झुकाकर, जोर से धक्का मार कर प्राणी को नरक के महा भयंकर गहन खड्डे में गिरा देती है। यह सर्व प्रकार के पाप की मूल, समग्र प्रकार से सर्व धर्म का नाश करने वाली और अंतरंग को उत्तप्त करने वाली है । शास्त्रकारों ने बारंबार इसकी निंदा की है। अधिक क्या कहें ? संक्षेप में भयंकर प्राकृति वाली इस हिंसा पुत्री जैसी रौद्रतम अन्य कोई स्त्री इस संसार में नहीं है। [८-१२। तामसचित्त का परिवार
इधर एक तामसचित्त नामक अन्य अन्तरंग नगर है। वहाँ राजा महामोह के पुत्र द्वषगजेन्द्र नामक राजा रहते हैं। पहले मैंने बताया है कि मेरा अन्तरंग मित्र वैश्वानर अविवेकिता नामक ब्राह्मणो का पुत्र है । यह ब्राह्मणी द्वेषगजेन्द्र की पत्नी है, अतः वैश्वानर द्वषगजेन्द्र का पुत्र हुा । * मेरा मित्र वैश्वानर जब इस अविवेकिता के गर्भ में था तभी किसी कारण से वह तामसचित्त नगर को छोड़कर इस रौद्रचित्त नगर में आ गई थी। यह तामसचित्त नगर कैसा है ? द्वेषगजेन्द्र राजा कैसा है ? और अविवेकिता रानी कैसी है ? तथा वह तामसचित्त नगर से रौद्रचित्त में क्यों आई ? इत्यादि के सम्बन्ध में आगे वर्णन करूंगा। भद्रे अगृहीतसंकेता! उस समय मुझे इन सब घटनाओं की गन्ध भी प्राप्त नहीं हई थी। महापुरुष सदागम की कृपा से मुझे अभी-अभी यह सब घटना मालूम हुई है वह तुम्हें बताता हूँ। नन्दिवर्धन का हिसा के साथ विवाह
यह अविवेकिता कुछ समय तक रौद्रचित्त नगर में आकर रही। वहाँ उसका दुष्टाभिसन्धि राजा से गाढ परिचय हुआ। यह दुष्टाभिसन्धि पल्ली-पति अविवेकिता के पति द्वषगजेन्द्र का निकट सम्बन्धी था, अतः वह अविवेकिता रानी के प्रति दास की तरह व्यवहार करता था । जब अविवेकिता को यह पता लगा कि मैं मनुजगति नगर में पाया हूँ तब मुझ पर स्नेह वश वह रौद्रचित्त नगर से निकलकर * पृष्ठ २४७
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