SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा बलवान सेनापति राजकुल में से निकलकर मेरी तरफ शीघ्रता से आता दिखाई दिया। मेरे पास आकर उसने नमस्कार किया और कहने लगा-कुमार ! महाराज ने प्रापको सन्देश भिजवाया है । आज प्रातः आप जैसे ही उनके पास से उठकर बाहर आये वैसे ही एक दूत उनके पास पाया और उसने बताया कि राजा कनकचूड का पुत्र कनकशेखर अपने पिता द्वारा किये गये अपमान से क्रोधित होकर, कुशावर्त नगर से निकल कर यहाँ से एक कोस दूर मलयनन्दन वन में पहुँच गया है। अब आपको जैसा योग्य लगे वैसा करें । वह अपना सम्बन्धी है, बड़ा प्रादमी है और अपना पाहुना है अतः उसे सन्मान के साथ लाने के लिये उसके सन्मुख जाना आवश्यक है। सभा में बैठे राजकुल के सभी सामन्तों ने भी यहो विचार प्रकट किये हैं, अतः महाराज स्वयं उसे लेने के लिये उसके सन्मुख जा रहे हैं । आपके पिताजी ने आपको भी शीघ्र बुला लाने के लिये मुझे भेजा है । अतः अब आप शीघ्र पधारें। "पिताजी की जैसी आज्ञा" कहकर मैं भी अपने परिजनों को लेकर चला और पिताजी की सवारी के साथ हो गया। मैंने धवल सेनापति से पूछा कि, 'कनकशेखर हमारा सम्बन्धी किस प्रकार हैं ?' तब धवल ने बताया-कुमार! आपकी माता नन्दा और कुमार के पिता कनकचूड सगे भाई बहिन हैं, अतः कनकशेखर आपके मामा का पुत्र भाई है। इस प्रकार बात करते हए हम सब कनकशेखर के पास पहुँचे । उसने मेरे पिताजी के चरण स्पर्श किये, फिर पिताजी और मैं उससे प्रेम सहित आलिंगनपूर्वक गले मिले । परस्पर एक दूसरे के योग्य सन्मान दिया। फिर बड़े आनन्दपूर्वक कनकशेखर को जयस्थल नगर में प्रवेश कराया । मेरे पिताजी और माताजी ने कनकशेखर से कहा - 'वत्स ! बहुत अच्छा किया, तुमने अपना मुख-कमल दिखाकर हमें अकल्पनीय आनन्द प्राप्त कराया है। यह राज्य भी अपने पिता का ही है, ऐसा समझ कर तुम्हें यहाँ रहने में किंचित् भी संकोच नहीं करना चाहिये।' मेरे माता-पिता के ऐसे प्रेम पूर्ण वचन सुनकर कन कशेखर बहुत प्रसन्न हुआ और उनकी आज्ञा को सिर आंखों पर चढ़ाया। मेरे महल के पास हो कनकशेखर को रहने के लिये एक विशाल सुन्दर महल मेरे पिताजी ने दिया। वह उस महल में रहने लगा। धीरे-धीरे उसका मेरे प्रति स्नेह बढ़ता गया और वह मेरा विश्वासपात्र मित्र बन गया। १६. दुमख और कनकशेखर कनकशेखर जयस्थल नगर में मेरे साथ आनन्द से रह रहा था । एक दिन हम एकांत में बैठे थे तब मैंने कनकशेखर से पूछा---मैंने सुना है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारा अपमान किया जिससे तुम्हें अपना राज्य छोड़ कर यहाँ आना पड़ा। क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy