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________________ प्रस्ताव ३ : दुर्मुख और कनकशेखर ३१६ मैं जान सकता हूँ कि तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारा कैसा अपमान किया और क्यों किया ? यह सारी घटना में सुनना चाहता हूँ। कनकशेखर की पूर्ववार्ता : मुनि-दर्शन कनकशेखर- सुनो, मेरे पिता कनकचूड और मेरी माता आम्रमंजरी मेरा बहुत प्रेमपूर्वक पालन करते थे और बचपन का लाभ उठाकर मैं कशावर्त नगर में आनन्द करता था। एक दिन अपने मित्रों के साथ खेलते हुए मैं नन्दनवन के समान शमावह नामक उद्यान में पहुँचा । वहाँ साधुओं के ठहरने योग्य स्थान पर रक्त अशोक वृक्ष के नीचे के एक महाभाग्यशाली प्रशान्त मुनिश्रेष्ठ को बैठे देखा। वे क्षीर समुद्र जैसे गम्भीर, मेरु पर्वत जैसे स्थिर, सूर्य के समान तेजस्वी और स्फटिक रत्न जैसे निर्मल दिखाई दे रहे थे। उन्हें देखकर स्वतः ही मेरे हृदय में उनके प्रति भक्ति उत्पन्न हुई, जिससे मैं उनके पास गया, नमस्कार किया और शुद्ध जमीन देखकर उनके समक्ष बैठा । मेरे मित्र भी मुनि महाराज को नमस्कार कर मेरे पास ही विनयपूर्वक बैठ गये । [१-६] जिनशासन का सार इन साधु महाराज का नाम दत्त था । अपना ध्यान पूरा कर उन्होंने हम सबको धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया और मधुरवाणी में हमारे साथ वार्तालाप किया। उनके मधुर वचनों पर प्रीति उत्पन्न होने से मैंने उनसे नम्रता पूर्वक पूछा--- 'भगवन् ! आपके दर्शन में धर्म किस प्रकार का बताया गया है ?' मेरे प्रश्न को सुनकर उन मुनि महाराज ने हम सबको अपनी मधुर वाणी से आह्लादित करते हुए विस्तार पूर्वक जिनेश्वर भगवान् के धर्म का स्वरूप बतलाया । उसमें भी उन्होंने पहले साधु धर्म का और फिर विस्तार पूर्वक गृहस्थ धर्म का विवेचन किया। उन्होंने बतलाया कि श्रावक का धर्म कल्पवृक्ष जैसा है, सम्यक् दर्शन कल्पवृक्ष का मूल है , बारह व्रत स्कन्ध हैं, शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिकता और अनुकम्पा शाखायें हैं और इसके फल महान हैं। यह सुनकर उसी समय मैंने और मेरे मित्रों ने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। मुनि महाराज अन्यत्र कहाँ विहार कर गये। फिर मैं भी घर आकर गृहस्थधर्म का पालन करने लगा । [७-१२] मुझे गृहस्थ धर्म की दीक्षा देने वाले दत्त मुनि धूमते हुए थोड़े दिनों बाद पूनः मेरे नगर के समीप पधारे । धर्म प्राप्ति की तीव्र इच्छा से और अन्य श्रावकों की संगति से मैं धर्म के विषय में प्रवीण हो गया था। नगर के बाहर उद्यान में मैं महामुनि के पास गया, उनको वन्दना कर मैंने पूछा- भगवन् ! जैन शासन का सार क्या है ? उसका वास्तविक रहस्य क्या है ? उसे समझाने की कृपा करें।। १३-१४ गुरु महाराज ने कहा-अहिंसा, ध्यानयोग, रागादि शत्रुओं पर अंकुश और स्वधर्मो बन्धुओं पर प्रेम, यह जैनागम का सार है [१५] * पृष्ठ २३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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