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प्रस्ताव ३ : कनकशखर
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भागा। मेरे पिता के पास जाकर उसने सब वृत्तान्त सुनाया। तब मेरे पिता ने बहुत ही शोक-पूरित मन से सोचा कि अब कुमार किसी भी प्रकार से वैश्वानर की संगति छोड़े यह सम्भव नहीं है । अतएव हमें तो अब मौन ही रखना चाहिये। मेरे पिता ने अपने मन में ऐसा निर्णय किया। नन्दिवर्धन का यौवन
इधर थोड़े ही समय में मैंने अन्य समस्त कलाओं का अभ्यास पूरा किया, अत: अच्छा शुभ दिन देखकर मेरे पिताजी मेरे कलाचार्य से स्वीकृति प्राप्त कर मुझे कलाशाला (गुरुकुल) से घर ले गये। मेरे पिता ने कलाचार्य का सन्मान किया, दान दिया और मेरे कलाग्रहण समाप्ति की प्रसन्नता में महोत्सव किया। मातापिता व अन्य समस्त परिजनों ने अभ्यास की समाप्ति पर मुझे धन्यवाद दिया। मेरे लिये एक राजभवन बनाया गया । यहाँ तुम अानन्द पूर्वक रहो, ऐसा कहकर वहाँ मेरे लिये अलग सेवकों की नियुक्ति की और मेरे भोग-उपभोग के सारे साधनों का अलग से प्रबन्ध किया। देव कुमार के समान सुखानुभव करता हुआ मैं उस भवन में अानन्द पूर्वक रहने लगा।
अनुक्रम से त्रैलोक्य को ललचाने वाले सागर के अमृत रस के समान, समस्त जनों के नेत्रों को आनन्दित करने वाले रात्रि में चन्द्रोदय के समान, बहविध रागरंगों के विकारों से बांके वर्षा काल के इन्द्रधनुष के समान, कामदेव के अस्त्र रूप कल्पवृक्ष क कुसुम गुच्छ के समान, कमल वन को विकसित करने वाले रमणीय लालिमा युक्त सूर्योदय के समान और विविध प्रकार के लास्य विलास प्रदान करने वाले मयूरनत्य के समान यौवन मुझे (नन्दिवर्धन) प्राप्त हुआ। जबसे मेरी युवावस्था का प्रारम्भ हया तबसे मेरा शरीर रमणीय और आकर्षक बना, मेरी छाती चौड़ी हई, मेरी जांधे मांसल हो गई, कमर पतली और नितंब स्थूल होने लगे। अपने प्रताप को प्रस्फुटित करती रोमावली फूट निकली, आंखें विशाल हो गईं, दोनों हाथ लम्बे हो गये और यौवन के पदार्पण रूप कामदेव भी मेरे हृदय में निवास करने लगा।
प्रतिदिन मैं अपने राजभवन से निकल कर प्रातः मध्याह्न और संध्या समय अपने से बड़े पारिवारिक जनों को नमस्कार करने राजकुल में जाता था । एकदिन प्रातः इसी प्रकार में माता-पिता को नमस्कार करने गया और उनके पांवों को स्पर्श कर नमस्कार किया । उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया। थोड़ी देर उनके पास बैठा, फिर उनसे प्राज्ञा लेकर अपने राजभवन में पाया और सिंहासन पर बैठा । कनकशेखर का जयस्थल नगर में प्रागमन
उस समय राजकुल में एकाएक कोलाहल का स्वर सुनाई देने लगा। असमय में यह क्या हल्ला हो रहा है ? यह जानने के लिये मैं जिस तरफ से कोलाहल सुनाई दे रहा था उस तरफ जाने का विचार करने लगा। इतने में ही धवल नामक * पृष्ठ २३६
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