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________________ ३१६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा कभी वह कुछ नई वस्तु या घटना देखता है या उसके बारे में सुनता है, तब उस घटना को अपने जीवन से मिलाकर देखता है। मैंने भी इस कथा को सुनकर अपने मन में विचार किया कि राजकुमार नन्दिवर्धन की भी यदि किसी पापी मित्र से मित्रता न हो तो बहुत अच्छा हो । नन्दिवर्धन-भद्र ! तुझे इस विषय में सोचना ही क्यों पड़ा ? मेरे पास इस समय न तो किसी पापी मित्र की गन्ध ही है और न भविष्य में भी कभी होगी। विदुर- मेरी भी आपसे यही प्रार्थना है। इस प्रकार कह कर विदूर मेरे कान के पास आया और दूसरा कोई सुन न सके इतने धो में से बोला-देखो कुमार ! एक बात आपको कहनी है। लोगों के कथनानुसार यह वैश्वानर बहुत ही दुष्ट प्रकृति और बुरे चरित्र वाला है, अतः इसकी पूर्ण रूप से परीक्षा करें। जिस प्रकार स्पर्शन की सगति से बाल ने अनेक दुःख भोगे वैसे ही वैश्वानर आपके लिये अनर्थकारी न बन जाय इस विषय में विशेष ध्यान रखें। हितोपदेशक पर दोष और उसका अपमान यह बात सुनकर मेरे बिलकुल पास खडे मित्र वैश्वानर ने लक्ष्य पूर्वक मेरे सामने देखा। उसके मुंह के भाव से ही मैं समझ गया कि विदुर के वचनों से उसे बहुत दुःख हुआ है। उसने मुझे (नन्दिवर्धन) पहले से समझाये हुए संकेतचिह्न से मुझे पास बुलाकर क्रूरचित्त नामक एक बड़ा दिया, जिसे मैंने तुरन्त खा लिया । बड़े के प्रभाव से मेरे शरीर में गर्मी बढने लगी। गुस्से से सारे शरीर पर पसीना आने लगा। क्रोध से शरीर गुजा के अर्धभाग के समान प्रारक्त हो गया, दांतों से होठ दबाकर आवेश के भाव प्रकट करने लगा, ललाट पर रेखायें पड़ गई और मुख अत्यन्त भयंकर हो गया । हे भद्रे अगृहीतसंकेता ! उस समय बड़े के प्रभाव से मैं वैश्वानर के इतना वशोभूत हो गया कि मुझ पापी ने विदुर के सारे प्रेम और वात्सल्य को भुला दिया। उसने जो कुछ कहा, वह मेरे भले के लिये ही कहा, यह भी मैं भूल गया। लम्बे समय से चली आ रही उसकी संगति और स्नेह भाव का त्याग कर दुर्भावना पूर्वक निष्ठुर वचनों से विदुर का तिरस्कार करते हुए मैंने कहा- अरे दुरात्मा ! लज्जाहीन !! क्या तू मुझे बाल के समान समझता है ? क्या अकल्पनीय प्रभाव वाले मेरे परमोपकारी, मेरे अंतरंग मित्र वैश्वानर को तू दुष्ट पापी स्पर्शन जैसा समझता है ? विदुर ने कोई उत्तर नहीं दिया। इससे मेरी क्रोधाग्नि भड़क उठी । मैंने तड़ाक से एक जोर का तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया और एक मोटा पटिया उठाकर उसे मारने दौड़ा। भयातिरेक से उसका शरीर कांपने लगा और डरकर वह * पृष्ठ २३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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