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उपमिति भव-प्रपंच कथा
आनन्द से परिपूर्ण और दुनिया के सर्व क्लेशों से रहित उत्तमोत्तम गति में पहुँच जाता है । फिर पूर्ववरिणत भयंकर उपद्रव श्रौर संसार की सभी उपाधियों से उसका छुटकारा हो जाता । जो प्राणी दीक्षा ग्रहण करते हैं वे इस संसार में भी प्रशंसामृत रस का पान करते हैं । इस भव में भी उन्हें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती और वे अबाधित सुख से परिपूर्ण रहते हैं । जिनेश्वर देव के मत की ऐसी दीक्षा प्राज तुम्हें प्राप्त हुई है, जिसे तुमने स्वयं अपनी इच्छा से स्वीकार किया है, अतः इस भव में प्राणी को जो विशेष स्थिति प्राप्त करनी चाहिये वह तुमने प्राप्त की है । मुझे
तुम्हें यही कहना है कि प्रमाद को छोड़कर, इस दीक्षा का पालन करते हुए ग्रात्मा की प्रगति करने के लिये जीवन पर्यन्त सतत प्रयत्न करते रहना । क्योंकि, दीक्षा लेकर भी जो प्रारणी उसका विधिवत् पालन नहीं करते वे ग्रधन्य हैं और अधमता को प्राप्त करते हैं तथा जो प्रारणी इसका विधिवत् पालन करते हैं वे संसार के उस पार पहुंच जाते हैं । वस्तुतः वे ही पुरुषोत्तम हैं । [ २६-४०]
गुरु महाराज का उपरोक्त प्रवचन सुनकर सबने एक मत से कहा - गुरुदेव ! आप हमें प्राज्ञा दीजिये । आपकी प्राज्ञा का पालन करने के लिये हम सब तत्पर हैं । [४१]
राजर्षि शत्रुमर्दन की शंकाओं का समाधान
उस समय अपने मुँह के समक्ष मुखवस्त्रिका रखकर शत्रुमर्दन सा श्राचार्य श्री से प्रश्न किया- हे प्रभो ! मनीषी का चित्त श्रति विशाल, निर्मल, धीर, गम्भीर, दाक्षिण्ययुक्त, दयावान, चिन्ता रहित, द्वेष रहित ग्रचंचल और संसार को आनन्द प्रदान करने वाला है । संक्षेप में वर्णनातीत है । ऐसा चित्त क्या अन्य किसी का भी हो सकता है ? उसके विशाल चित्त और उदार व्यवहार को देखकर हमारे सब संसारी बन्धन शिथिल हो गये हैं और हम सब इस भयंकर संसार कारागृह से मुक्त हो गये हैं । प्रभो ! ऐसा विशाल चित्त अन्य किसी का भी हो सकता है क्या ? कृपा कर मुझे समझाइये | [ ४२-४५ ]
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गुरु महाराज - इस मनीषी की माता शुभसुन्दरी का नाम तो आपने पहले सुना ही है । शुभसुन्दरी के जितने भी पुत्र होते हैं उन सब का चित्त ऐसा ही निर्मल होता है । [४६ ]
यद्यपि राजर्षि शत्रुमर्दन स्वयं तो अब उपरोक्त कथन का तत्त्व समझ गये थे किन्तु अन्य मुग्ध लोगों को बोध देने के उद्देश्य से शिर नमाकर फिर प्रश्न किया - महाराज ! क्या शुभसुन्दरी के श्रन्य भी बहुत से पुत्र हैं ? मैं तो उसके इस एक ही पुत्र मनीषी को जानता हूँ और ऐसा समझता हूँ कि उसके यह एक मात्र पुत्र ही है | [ ४७-४८ ]
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