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________________ प्रस्ताव ३ : दीक्षा महोत्सव : दीक्षा और देशना ३११ कहलाती हो, उसे आज तुमने धर्म में भी मेरा साथ देकर सत्य कर दिखाया है । हे देवी ! तुमने बहुत अच्छा निर्णय लिया है। संसार कारागृह में फंसे हुए जीवों के लिये इससे अच्छा दूसरा कोई श्रेष्ठ कर्त्तव्य नहीं हो सकता। [१८-२०] अपने सामन्तों और नगरवासियों में से जो व्यक्ति उस समय दीक्षा लेने को तैयार हुए थे उन्हें मधुर वाणी से प्रसन्न एवं उत्साहित करते हुए राजा ने कहाआप पारमेश्वरी दीक्षा लेने को तैयार हए हैं, अतः आप वास्तव में भाग्यशाली हैं, महात्मा हैं, उत्तम पुरुष हैं और कृतकृत्य हैं । आप सब सर्वोत्तम कार्य कर रहे हैं। आपके जैसे लोगों के लिये ऐसा करना ही उचित है। आप इस लोक में मेरे अकृत्रिम/ सच्चे भाई हैं। [२१-२२] सुलोचन को राज्य-प्रदान : दीक्षा उस समय अपने पुत्र सुलोचन कुमार को अपने सर्व राज्य-चिह्न सौंपकर उसे राजगद्दी पर स्थापित किया। इसके अतिरिक्त जो अन्य कार्य करने थे उन्हें पूर्ण कर राजा जिनमन्दिर में गया । अन्य लोग भी अपने कार्यों से निवृत्त होकर जिनमन्दिर में पाये, जगद्गुरु जिनेश्वर देव की पूजा की और सब मिलकर गुरुदेव प्रबोधन रति प्राचार्य के पास आये तथा उनके सन्मुख सबने अपने विचार प्रकट किये । गुरु महाराज ने मधुर शब्दों में सबका अभिनन्दन करते हुए कहा- बहुत अच्छा । अब विलम्ब कर, प्रतिबन्धित होकर * संसार में रहना श्रेयस्कर नहीं है। तदनन्तर पापों का प्रक्षालन कर जो स्वच्छतम हो चुके हैं ऐसे आचार्य देव ने सब को जैनागमों में प्रदर्शित विधि से दीक्षा प्रदान की, दीक्षित किया। उस समय सब के संवेगमय वैराग्य की वृद्धि करने के लिये प्राचार्यश्री ने संक्षिप्त में देशना दी। [२४-२८] प्राचार्य देव की देशना प्रादि-अन्त रहित यह संसार जिसमें बार-बार जन्म-मरण होने से बहुत भयंकर है, इसमें मौनीन्द्री/भागवती प्रव्रज्या ग्रहण करना प्राणियों के लिये अति कठिन है । यह दोक्षा मन, वचन, काया के सभी सावध योगों पर अंकुश रखने वाली होने से अतिशय निर्मल है। जब तक यह अत्यन्त दुर्लभ दीक्षा प्राणी के उदय में नहीं पाती तब तक उसे इस संसार में अनन्त प्रकार के दुःख होते रहते हैं, राग-द्वेष की परम्परा के भयंकर परिणाम उसको प्रभावित करते रहते हैं, कर्म के स्पष्टतः प्रभाव से जन्मपरम्परा का चक्कर चलता रहता है, अनेक प्रकार की आपत्तियाँ और पीडाएँ आती रहती हैं, विडम्बित होता रहता है, मनुष्य ही मनुष्य के सन्मुख दीन वाक्य बोलता है, दुर्गति में जाकर अनेक दुःख सहन करता है, अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त रहता है और विविध क्लेशों से भरपूर इस भयंकर संसार-समुद्र में भटकता रहता है । जब कर्म शिथिल हों और भगवान की कृपा हो तभी प्राणी जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित दीक्षा ग्रहण कर सकता है । दीक्षानन्तर उसके सब पाप धुल जाते हैं जिससे प्राणी अखण्ड * पृष्ठ २३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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