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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
में कोई भी वस्तु रमणीय, सारभूत, ग्रहणीय और सुन्दर हो तो तवज्ञ क्यों संसार का त्याग करें ? बुद्धिमान पुरुष कैदखाने जैसे इस संसार का त्याग करते हैं इससे यह सहज ही प्रमाणित होता है कि इस संसार में कुछ भी सारभूत नहीं है । देव ! अनेक प्रकार के महान भयों को बारंबार उत्पन्न करने वाले इस संसार का जब मनीषी जैसे बुद्धिमान पुरुष सोच-समझकर त्याग करते हैं तब आपके जैसे समझदार व्यक्ति का उसमें लिप्त रहना योग्य नहीं है। हम सबने मनीषी के चित्त का अभी-अभी सूक्ष्म निरीक्षण किया है जिससे हमारा मन भी संसार के प्रति आकर्षित न होकर विकर्षित हो रहा है । जिस प्रकार उसके प्रभाव से हममें दीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हा है, उसी प्रकार उसी के प्रभाव से उसी के अनुरूप हम सब कार्य-सम्पादन करेंगे जो उसो के द्वारा पूर्ण होगा ऐसा लग रहा है। अतः जिनेश्वर देव के मत की अत्यन्त निर्मल और संसार का क्षय करने वाली भागवती दीक्षा लेने की हमारी भी इच्छा हुई है, आप हमें अाज्ञा देने की कृपा करें। [१-८]
___ शत्रुमर्दन–आपके विवेक को धन्य है। आपका गम्भीर चित्त भी धन्यवाद का पात्र है । आपका वचन-चातुर्य और आत्मबल सचमुच ही प्रशंसा के योग्य है। आपने श्लाघनीय विचार किया है । आपने मुझे भी उत्साहित किया है। एक क्षण में मोह-पिंजर को तोड़ कर अापने प्रशस्ततम कार्य किया है। [६-१०]
सबको धन्यवाद देने के पश्चात हर्षोल्लसित होकर राजा ने सुबुद्धि से कहा- मेरे मित्र ! तुझे तो संसार का स्वभाव पहले से ही ज्ञात था, फिर भी इतने समय तक तू सिर्फ मेरे लिये संसार में रहा, अन्यथा तेरा संसार में पड़े रहने का दसरा क्या कारण हो सकता है ? यदि किसी प्राणी को राज्य मिलता हो तो वह चण्डाल कार्य क्यों स्वीकार करेगा ? मेरे सच्चे मित्र! तूने बहुत अच्छा किया। मेरे ऊपर कृपा कर तुने आज तक संसार में मेरा साथ दिया और आज मेरे साथ ही दीक्षा लेने का निश्चय कर तूने अपनी सच्चो मित्रता को निभाया है [११-१४]
मध्यमबुद्धि को उद्देश्य कर राजा ने कहा-भाई ! तेरी तो पहले से ही मनीषी की संगति होने से तू तो सच्चा भाग्यशाली है । जिस प्राणी को कल्पवृक्ष की प्राप्ति हो जाय उसे फिर किसी भी प्रकार का दु:ख कैसे रहेगा ? इसके चारित्र ग्रहण के विषय पर गम्भीरता से सोचकर उसका अनुकरण करने का निश्चय कर तमने बता दिया है कि तुम भी अपने भाई जैसे हो हो। भद्र । तूने साधु कार्य किया। वृद्धजन कहते हैं कि जिसका प्रारम्भ अच्छा रहे उसका अन्त भो अच्छा होता है, यह कहावत तुम पर पूर्णतया घटित होती है [१५-१७]
फिर राजा ने मदनकन्दली रानी से कहा--स्वर्ण और पद्मकमल जैसा तुम्हारा चित्त वास्तव में अत्यन्त सुन्दर और सुकुमार है । इस निर्मल चित्त के कारण ही तुमने आज यह बात स्वीकार की है । लोक-व्यवहार से तुम मेरी धर्मपत्नी * पृष्ठ २३०
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