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प्रस्ताव ३ : दीक्षा महोत्सव : दीक्षा और देशना
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आ रही थीं, इससे आपस में ईर्ष्या हो रही थी। घर के बड़े लोग हमको खिड़की से इस प्रकार झांकते हुए देख लेंगे इस कल्पना से वे लज्जित भी हो रही थीं। ऐसा रूप सौंदर्यवान पुरुष संसार छोड़ देगा इस विचार से कइयों को दुःख हो रहा था । सृष्टि में से ऐसा सौन्दर्यधारक पुरुष चला जाए तब संसार में रखा ही क्या है ? इस विचार से कई स्त्रियाँ वैराग्य रस में लीन हो रही थीं । इस प्रकार नगरवासी हजारों वनितायें
नेक प्रकार से रस और भावों से प्रभावित होकर उसका अभिनन्दन कर रही थीं । प्रकाश में देवसुन्दरियाँ और अप्सरायें उसके साथ चल रही थीं । उसके पीछे दूसरे रथ में उसके समान ही रूपवान उसका भाई मध्यमबुद्धि बैठा था । उसके पीछे महासामन्त, मन्त्रीगण एवं विशाल जन समुदाय के साथ अनेक रथ, हाथी और घोड़े श्रानन्द पूर्वक चल रहे थे । इस प्रकार चलते हुए मनीषी की शोभायात्रा निजविलसित उद्यान में पहुँची । जैसे ही मनीषी रथ से नीचे उतरा, राज्य परिवार के लोगों ने उसे घेर लिया । फिर वह थोड़ी देर प्रमोदशिखर मन्दिर के द्वार पर खड़ा
रहा ।
उदात्त अनुकररण : राजा की दीक्षाभिलाषा
मनीषी रथ में बैठा तभी से उसमें कितना आत्मबल है इसकी परीक्षा करने के लिये शत्रुमर्दन राजा उसके स्वरूप को अधिकाधिक लक्ष्यपूर्वक अवलोकन करने लगा और उसके हलन चलनादि प्रत्येक क्रिया पर विशेष ध्यान रखने लगा । किन्तु राजा ने देखा कि हर्षातिरेक का प्रसंग उपस्थित होने पर भी अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसायों से मनीषी के मन का मैल धुल गया है और उसके मन में तिल -तुष मात्र भी विकार नहीं है, वरन् जैसे क्षार और अग्नि के ताप से रत्न अधिक चमकीला बनता है वैसे ही संसार के चित्र-विचित्र विलासों के दर्शन से उसका चित्त-रत्न अधिक निर्मल हो रहा है । ऐसे निर्मल मन ने परम्परानुविद्ध उसके शरीर पर भी प्रभाव दिखाया जिससे उसका शरीर इतना अधिक देदीप्यमान हो गया कि सूक्ष्म निरीक्षण करने पर राजा को ऐसा लगने लगा कि जैसे उदय होते समय सूर्य के प्रकाश में तारामण्डल तिहीन हो जाता है वैसे ही मनीषी के प्रात्मिक तेज के समक्ष संपूर्ण राज्य मण्डल निस्तेज हो गया है । मनीषी के गुरण-चिन्तन में राजा इतना लीन हो गया कि परिणामस्वरूप संसार - बन्धन - कारक कर्मों का जाल टूट गया और उसे स्वयं भी चारित्र ग्रहण करने को इच्छा उत्पन्न हो गई । उद्यान में पहुँचते ही उसने अपनी इस इच्छा को सुबुद्धि मन्त्री, रानी मदनकन्दली, मध्यमबुद्धि और अन्य लोगों पर प्रकट की । महात्मा पुरुषों के सान्निध्य (संपर्क) के अचिन्त्य प्रभाव से, कर्मक्षयोपशम के विचित्र कारणों से और मनीषी के प्रकृत्रिम गुरणों से प्रभावित सभी लोगों का आत्मवीर्य भी समुल्लसित हुआ जिससे उन्होंने कहा :
महाराज ! आपने ठीक कहा, आपके जैसे विवेकी पुरुषों को ऐसा ही करना चाहिये, क्योंकि संसार में इससे श्रेष्ठ और कुछ नहीं है । प्रभो ! यदि इस संसार
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