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उपमिति-भव-प्रपंच कया
हेषारव कर रहे हैं। उनके पीछे आज के अवसर के अनुसार सुन्दर वस्त्र पहने हर्षोन्मत्त सैनिक दल चल रहे हैं जो क्षीर समुद्र के जल के समान लग रहे हैं। सुन्दर रत्नाभूषणों से सुसजित सुन्दर लोचन वाले स्त्री-पुरुष सुन्दर द्रव्यों को साथ लेकर पंक्तिबद्ध होकर चल रहे हैं। महात्मा मनीषी के पुण्यपुञ्ज से आकर्षित देवता समूह आकाशमार्ग से आकर आकाश को सुशोभित कर रहे हैं। नगरवासी भी कौतुक देखने के लिये बड़ी संख्या में पा रहे हैं जो हर्षोल्लास से तरंगित समुद्र में आये ज्वार की तरह लग रहे हैं। अथवा मुझ से वृत्तान्त सुनकर, आपके आशय को जानकर
और मनीषी के गुणों से आकर्षित होकर कौन इस उत्सव में सम्मिलित नहीं होगा? ऐसे उत्सव में तो भाग लेने की सभी को इच्छा होती ही है, इसमें क्या संदेह है ? अतएव हे राजन् ! अब आप लोग भी उठिये। [१-८]
सुबुद्धि मंत्री के वचन सुनकर राजा और मनीषी खड़े हुए और द्वार के पास आये । एक मुख्य रथ पर मनीषी बैठा जिसके चारों तरफ रत्नों के घुघर लगे थे, सुन्दर सुखासन पर विराजमान मनीषी द्वारा धारित मुकुट की किरणों से उसका मस्तक आरक्त हो उठा था, कानों में पहने हुए कुण्डल दोलायमान हो रहे थे, वक्षस्थल पर बड़े-बड़े उत्तम मोतियों की माला शोभित हो रही थी, सुन्दर कान्ति युक्त हाथों के कड़े और बाजूबन्द शोभित हो रहे थे, अति सुगन्धित पान और विलेपन आदि से उसकी बाह्य इन्द्रियों को प्रसन्न किया गया था, शरीर पर स्वच्छ बहुमूल्य दिव्य वस्त्र शोभित थे, उत्तम प्रकार की विभिन्न जातियों को फूल मालाओं से वक्ष सुशोभित था और प्रेमियों के मनोरथ को पूर्ण करने वाला उसका रूप अतिशय सुन्दर था। नरेश शत्रुमर्दन उस के रथ के सारथि बन कर रथ चला रहे थे। उस समय स्वकीय यश: कीति के समान उसके मस्तक पर धवलित छत्र शोभित हो रहा था। दोनों और सुन्दर पण्यांगनायें हाथों से चन्द्र-कौमुदी-किरण जैसे श्वेत चामर ढुला रही थीं, भाट लोग उच्च स्वर से विरुदावली पढ़ते हुए साथ में चल रहे थे, हर्षोन्मत्त वारांगनायें आगे-आगे नृत्य करतो चल रही थी, भिन्न-भिन्न वाद्ययन्त्रों से निकलता मधुर स्वर चारों दिशाओं को बधिर कर रहा था, फैल रहा था। किन्नर गरण (गायक समूह)गान करते साथ चल रहे थे, आकाश में देवता हर्षातिरेक से सिंहनाद करते चल रहे थे, नगर निवासी उसकी जय जयकार करते चल रहे थे।
इस अवसर पर स्त्रियां झरोखों से अपने मुह बाहर निकाल कर मनीषी को एकटक देख रही थीं, कई महिलायें तो मनीषी को देव कुमार मानकर कौतुक से उसे ही देख रही थीं और उसको निरख-निरख कर स्वयं को भाग्यशालिनी मान रही थीं। उसके दर्शन से कितनी ही स्त्रियां हर्ष-विह्वल हो गई कितनी ही अनुपम शृगार कर सामने आ रही थीं जिससे कि उसकी दृष्टि उन पर ही पड़े, कितनी ही स्त्रियों ने मदन-रस से पराभूत होकर विलासपूर्ण हाव-भाव प्रदर्शित करने प्रारम्भ कर दिये थे और कितनी हो उसे देखने की प्रबल उत्कंठा में एक-दूसरी को धकेल कर आगे * पृष्ठ २२८
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