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________________ प्ररताव ३ : निजविलसित उद्यान का प्रभाव . दृष्टि भी नहीं थकती । हमें इसका विरह भी स्वीकार नहीं होता और इसी की तरह चारित्र-ग्रहण करने के परिणाम भी अभी उत्पन्न नहीं हुए, अतः इसे प्रेम से समझाकर इसको संगीतादि विषय-भोगों के सुखों की अनुभूति करा दो और इसको स्पष्ट रूप से बता दो कि पाप ही इन विषय-भोगों के स्वामी हैं। इसे वज्र, इन्द्रनील, महानील, कर्केतन, मागक, वैड्र्य, चन्द्रकान्त, पुखराज आदि बहुमूल्य रत्नों का ढेर दिखा दो । देवांगनाओं को मान देने वाली लावण्यवती सून्दर कन्याओं को दिखाकर उसके मन में संसार के प्रति अनुराग पैदा कर दो जिससे कि वह अधिक विचार किये विना ही थोड़े समय तक संसार में रहकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके । सुबुद्धि -जैसी महाराज की आज्ञा । परन्तु, इस विषय में मुझे आपसे कुछ प्रार्थना करनी है, 3 वह योग्य हो या अयोग्य आप मुझे क्षमा प्रदान करें। __ शत्रमर्दन-सखे ! तुम तो मझे अच्छा और यर्थाथ उपदेश देने वाले हो अत: मुझ पर तुम्हारा पूर्ण अधिकार है। उपदेश देने के कारण तुम मेरे गुरु और मैं तुम्हारा शिष्य हूँ । फलतः मेरे बारे में कुछ भी शंका करने की आवश्यकता नहीं। जो कहना हो निःसंकोच होकर तुरन्त कहो । दीक्षा की महत्ता सुबुद्धि –देव ! ऐसा है तो सुनिये । आपने कहा कि आपको मनीषी के प्रति अत्यधिक प्रेम है वह ठीक ही है, क्योंकि महापुरुषों को सर्वदा गुणवान मनुष्य के प्रति पक्षपात (प्रेम) होता ही है जो समुचित भी है । ऐसा प्रेम पाप-समूह का दलन करता है, सद्गुणों को बढ़ाता है, सज्जनता को जन्म देता है, यश की वृद्धि करता है, धर्म का संचय करता है और मोक्षमार्ग की योग्यता प्राप्त कराता है। आपने मनीषी को किसी प्रकार लालच देकर कुछ समय तक संसार में रोकने की जो बात कही वह न्याययुक्त न होने से मुझे अनुचित प्रतीत होती है । ऐसा करके आप उस पर सच्चा प्रेम नहीं दिखा रहे हैं, वरन् उसके विरुद्ध कार्य कर रहे हैं, क्योंकि इस संसार रूपी महाअटवी से बाहर निकलने की इच्छा से संपूर्ण जगत् का हित करने वाले जिनमत में विशेष प्रवृत्ति करने के लिये मन, वचन, काया से जो सम्यक् प्रकार से उद्यम कर रहा हो उसे अधिक उत्साह देने वाला ही उसका स्नेहशील सच्चा मित्र है । परन्तु, झूठे मोह से जो प्राणी संसार से निकलने की इच्छा वाले व्यक्ति को रोके वह उसका अहित करने वाला होने से परमार्थत: उसका शत्रु है । मनीषी अपना हित करने को उद्यत हया है, उसे न रोकने में ही उसका हित है, तब ही प्रापका उसके प्रति सच्चा स्नेह माना जायगा । दूसरा, उसे रोकने के लिये इस संसार के पदार्थ तो क्या यदि आप दैवी-संपत्ति और सुख भी प्रस्तुत करें तब भो उसे डिगाना अशक्य है । [१-५] * पृष्ठ २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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