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________________ ३०४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उसका परमार्थ इस प्रकार है, आप ध्यान पूर्वक सुनें। आचार्यश्री ने चार प्रकार के * पुरुष कहे थे, उनमें से प्रथम उत्कृष्टतम पुरुष समस्त प्रकार के कर्म-प्रपञ्चों से रहित है, अत: उन्हें सिद्ध या मुक्त कहा जाता है। उसके पश्चात् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट जीव बताये, उन्हें क्रमशः बाल, मध्यमबुद्धि और मनीषी समझे। प्राचार्यश्री ने जिस कर्मविलास राजा की बात की उसे प्राणियों के इस प्रकार के जघन्य, मध्यम और उकृष्ट रूप के जनक अपने-अपने कर्म के उदय को समझे । कर्म की शक्ति अचिन्त्य एवं अवर्णनीय है। आचार्य देव का संकेत इसी ओर था, अन्य किसी के सम्बन्ध में नहीं । कर्म की शुभ, अशुभ और मिश्र तीन प्रकार की परिणति है। शुभसुन्दरी, अकुशलमाला और सामान्यरूपा नाम प्रदान कर मनीषी, बाल, मध्यमबुद्धि की माताओं के रूप में इन तीनों प्रकृतियों का परिचय दिया है, क्योंकि तीन वर्गों के पुरुषों को उसी स्वरूप में यही माताएँ जन्म देती हैं। शत्रमर्दन-"तब उक्त वर्ग के जीवों का मित्र कौन है, यह भी बतलायो ? . सूबुद्धि-देव ! सब अनर्थों को उत्पन्न करने वाला, वह जो दूर खड़ा था, उस स्पर्शनेन्द्रिय को उन जीवों का मित्र समझे । गुरु के उपदेश का रहस्य शत्रुमर्दन राजा ने यह सुनकर मन में विचार किया कि, अहो! आचार्यश्री का उपदेश मैंने भी सुना, पर मैं उसका रहस्य नहीं समझ सका, किन्तु इस सुबुद्धि ने विचार पूर्वक इस गहन निष्कर्ष को समझ लिया । मुझे लगता है कि सुबुद्वि को सदुपदेश देने वाले ऐसे साधुओं से पर्याप्त समय से परिचय है, इसीसे वह सब यथार्थता समझ गया है । ओहो ! इसने कितने सरल शब्दों में समझाया ! आचार्यश्री का वचन-कौशल देखो! जिन्होंने युक्तिपूर्वक बिना किसी का नाम लिये मनीषी आदि सबके चरित्र सुना दिये। उन्होंने भी कितना सुन्दर उपदेश दिया ! अथवा इसमें आश्चर्य कैसा ? उनका तो नाम ही प्रबोधनरति है, अत: उन्हें अन्य प्राणियों को प्रतिबोध देने में ही आनन्द प्राता है, यह तो उनके नाम की ही सार्थकता है । राजा की दीक्षा में विलम्ब करने की इच्छा इस प्रकार विचार करने के बाद राजा ने सुबुद्धि से कहा—मित्र ! अब अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं । इन घटनाओं की यथार्थता मुझे समझ में आ गई है । अब मैं एक दूसरी बात कहता हूँ, सुनों। यदि यह मनीषी थोड़े समय तक संसार में रहकर विषय-सुखो का भोग करे तो हम भी इसके साथ दीक्षा ले लें । कारण यह है कि जब से मैंने इसे देखा है तभी से मुझे इस पर अत्यधिक स्नेह उत्पन्न हुआ है। अतः इससे दूर रहने का विरह हृदय को किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं होता, इसके मुखकमल को देखते हुए * पृष्ठ २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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