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________________ प्रस्ताव ३ : निजविलसित उद्यान का प्रभाव ३०३ शत्रमर्दन -जब तुम क्षेत्र की बात करते हो तब जैन मन्दिर जैसे पवित्र क्षेत्र में ऐसी अघटित घटना कैसे हुई ? ऐसे सुन्दर शान्त पवित्रतम गुण-भण्डार क्षेत्र में बाल के मन में ऐसे अशुभ परिणाम क्यों उत्पन्न हुए ? सुबुद्धि-महाराज ! इसमें मन्दिर का नहीं उद्यान का दोष है । मन्दिर भी उद्यान में आया हुआ है इसलिये उद्यान सामान्य क्षेत्र है और वही बाल के अशुद्ध अध्यवसायों का कारण है। शत्रुमर्दन–यदि यह उद्यान अशुद्ध अध्यवसायों का कारण है तो हम भी तो उसी उद्यान में थे फिर हमारे मन में अशुद्ध विचार क्यों नहीं उठे ? सूबुद्धि-देव ! यह उद्यान विचित्र स्वभाव वाला है और भिन्न-भिन्न प्राणियों की अपेक्षा से अनेक प्रकार के विचार पैदा करने वाला है, इसीलिये उसका नाम निजविलसित उद्यान रखा गया है। भिन्न-भिन्न सहकारी कारणों के योग से जो भिन्न-भिन्न प्राणियों में विभिन्न प्रकार के विलास की इच्छा उत्पन्न करे वह निजविलसित । बाल के साथ उसका मित्र स्पर्शन और अकुशलमाला थी इसलिये इस उद्यान में मदनकन्दली को देखने पर उसके मन में उसके साथ विषय-भोग की इच्छा जाग्रत हुई। यहाँ स्पर्शन और अकुशलमाला का सहयोग और मदनकन्दली का दिखाई देना बूरे विचारों की उत्पत्ति के सहयोगी कारण हैं । मनीषी, मध्यमबुद्धि और आपको पुण्यशाली विशिष्ट पुरुष आचार्यश्री के चरण-स्पर्श का अवसर मिला जिससे सर्वविरति और देशविरति स्वीकार करने की इच्छा जाग्रत हुई, अतः प्राचार्य श्री का चरण-स्पर्श इसका सहयोगी कारण हुआ। यद्यपि द्रव्य, क्षेत्र, काल, स्वभाव, कर्म, नियति, पुरुषार्थ आदि अनेक प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारणों के एक साथ मिलने पर ही किसी भी कार्य की निष्पत्ति होती है। केवल किसी एक ही कारण से स्वतन्त्र रूप से कोई कार्य का कारण नहीं हो सकता। फिर भी किसी विशेष कारण की अपेक्षा से किसी कारण की मुख्यता हो तो उसे मुख्य समझना चाहिये । वास्तव में सब कारणों के एकत्रित होने पर हो कार्य होता है, पर अमुक अपेक्षा से एक कारण मुख्य दिखाई देता है। उस वक्त उद्यान के विचित्र प्रकार के भाव हृदय पर अधिक प्रभावोत्पादक होने से क्षेत्र को मुख्य कारण माना है। शत्रुमर्दन-मित्र ! यह तो तुमने ठीक कहा । अब एक दूसरी बात पूछता हूँ । प्राचार्यश्री के समक्ष जब कर्मविलास राजा के विषय में बात चली थी तब तुमने कहा था कि 'मैं उसका स्वरूप जानता हूँ, आपको बतला दूंगा' अत: मुझे उसका स्वरूप समझायो, उसे जानने की मेरी तीव्र इच्छा है। सुबुद्धि-देव ! यदि प्रापकी ऐसी इच्छा है तो एकांत में चलें, मैं सब कुछ बताऊँगा। कर्मविलास राजा और उसके परिवार का वास्तविक स्वरूप पश्चात् मनीषी की आज्ञा लेकर राजा तथा मन्त्री राज्यसभा से उठकर एकान्त कमरे में गये । वहाँ सुबुद्धि ने कहा-राजन् ! आचार्यश्री ने जो बात कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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