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________________ ३०६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा इसका कारण यह है कि उसे प्राचार्यश्री के उपदेश से विषय-विष के दारुण परिणामों की अनुभूतिपूर्वक प्रतीति हो चुकी है, वह प्रबोध प्राप्त कर चका हैं। उसके हृदय सरोवर में सर्वप्रकार के पाप रूपी कलुषता को धो डालने वाला विवेक रत्न स्फूरित हो चका है। वस्तु-स्वरूप का ज्ञान कराने वाला सम्यकदर्शन उसकी आत्मा में अधिक उल्लसित हुआ है और समस्त दोषों का हरण करने वाले चारित्र धर्म को ग्रहण करने के परिणाम उसे प्राप्त हो चुके हैं । जब प्राणी में ऐसे महाकल्याणकारी गुरणसमूह जागृत हो जाते हैं तब उसका चित्त विषयों में लग ही नहीं सकता। उसे संसार का प्रपंच त्याज्य ही लगता है। संसार के विलास उसे इन्द्रजाल के समान निस्सार ही लगते हैं । क्षणिक सुख उसे स्वप्न जैसे लगते हैं। इष्टजनों का सम्पर्क क्षरण-स्थायी लगता है । मोक्षमार्ग प्राप्ति की जो प्रबल बुद्धि उसे प्राप्त हुई है वह दूसरों के अनुरोध या अनुराग पर प्रलयकाल में भी नाश को प्राप्त नहीं होती, यह निश्चित है । अतः यदि हम उसे रोकने का प्रलोभन देंगे तो यह प्रकट हो जायगा कि हम पर मोह का कितना अधिकार है। बाकी आप जैसा सोच रहे हैं, उसे संसार में रहने का, रोकने का, वह तो कभी भी फलीभूत नहीं होगा। अत: ऐसे व्यर्थ के प्रयत्नों से क्या प्रयोजन ? शत्रुमर्दन-यदि ऐसा ही है तो इस अवसर पर हम क्या करें ? बतानो ५ सुबुद्धि-देव ! उसकी दीक्षा का प्रशस्त महर्त निकलवाकर उस दिन तक सब लोग अत्यधिक प्रमुदित हों ऐसे वार्मिक महोत्सव करें। शत्रुमर्दन-यह तो तुम सब जानते ही हो अतः जैसा उचित समझो वैसा सब प्रबन्ध करो। १७. दीक्षा महोत्सव : दीक्षा और देशना राजा शत्रुमर्दन ने सिद्धार्थ नामक ज्योतिषी को बुलाया । ज्योतिषी शीघ्र प्राया। उसके राज्य सभा में प्रवेश करते ही राजा ने उसका उचित सम्मान किया और उसे प्रासन दिया। फिर उसे बुलाने का प्रयोजन बताया और दीक्षा महोत्सव के लिये शुभ मुहूर्त पूछा। ___गणना कर ज्योतिषी ने कहा कि आज से नौंवे दिन इसी मास के इसी पक्ष में शुक्ल त्रयोदशी शुक्रवार को चन्द्रमा का उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के साथ योग है। उस दिन महाकल्याणकारी शिव योग है, सूर्योदय के सवा दो प्रहर पश्चात् वृषलग्न में सातों ग्रह शुभ स्थान में आने का एकान्त निरवद्य योग है । जो शुभ कार्य करने का सर्वोत्तम समय है, अतः उस समय चारित्र ग्रहण करवायें। राजा और मंत्री को मुहूर्त * पृष्ठ २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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